Friday 30 December 2016

इस साल नोटबंदी बना मज़ाक, आप भी जानिए पर जुत्ता मत मारिएगा प्लीज-

इस साल नोटबंदी बना मज़ाक, आप भी जानिए पर जुत्ता मत मारिएगा प्लीज -

साहब, नोटबंदी को लेकर के सब परेशान हैं, मैं भी परेशान क्योंकि मैं ना मोदी, ना राहुल, ना रविश और ना ही खान हूँ. लेकिन पूरी नोटबंदी के मसले में कुछ लोगों ने मजाकिया मशाल भर दिया हैं ताकि यह दर्द कुछ कम हो हो. कल की एक खबर ने बताया की एक लडके ने ख़ुदकुशी कर ली क्योंकि उसको उसकी डार्लिंग ने जिओ से मिस्ड कॉल मार दिया था तो मेरे दिमाग की खुरपाती में एक खबर झाय से आई की चलों भाई अच्छा हुआ की किसी लड़की ने खुल्ले के चक्कर में अपने बॉयफ्रेंड को नहीं नोचा पर मेरे एक मित्रा ने बताया की जब उसकी डार्लिंग के पर्स में खुल्ला पैसा नहीं निकला तो उसने अपनी डार्लिंग का पर्स फेक दिया और बोला चल बे कैश लेस, कॅशलेस हो जाते हैं. कितने लोग कैशलेस हो गए हैं अबतक, मैं तो कहता हूँ की सब कैशलेस हो गए हैं क्योंकि हमारे पास तो कभी कॅश था ही नहीं जो था उसका तो ऐश कर लेते हैं और जिनके पास कॅश था उनपर मोदीजी का ताला लटका हैं तो हुए ना सब कैशलेस. सर मत खुजलाये की मजा नहीं आ रहा है, मजा आएगा फ़िक्र ना कर यारे मजा तो बहुत आएगा, इतना मजा आएगा की तू मजा का मतलब भूल जायेगा और गूगल पर ढूंढेगा जैसे अभी पैसा ढूंढ रहा है. लेकिन पक्का बोल रहा हूँ की मजा आएगा बिलकुल कटरीना की माज़ा की तरह, पक्के हुए आम की तरह, जलेबी की रस की तरह और सनी लियोनी की फिल्म की तरह मजा आएगा पर पहले बैंक में कालाधन तो आने दे यारे तभी तो मजा आएगा जलेबी का, रसगुल्ला का, सनी के लेओनी का सब मजा आएगा काहे की बिना पैसा का तो सुलभ शौचालय वाले खड़ा हो कर निकलने नहीं देते तो फिर बिना पैसा का मजा, क्या  ख़ाक आएगा . 50 दिन तो इन्तेजार कर लिया ना थोड़ा इन्तेजार का और मजा लीजिये ना, फ्री में मिल रहा है. मुझे पता हैं अब आप मुझे जूता मरोगे क्योंकि मैं मोदी जी का सपोर्टर समझ कर. पर आपका जूता पुराना हो गया है और पैसे नहीं है तो जूता फट जायेगा इसलिए फेक कर ना मारे, काहे की फट जाने के बाद मोची भी नहीं सिलेगा काहे की,  भाई छुट्टा नहीं तो फिर नंगे पैर घूमोगे का ? 

Wednesday 28 December 2016

लंगोट का ढीलापन बीवी जानकर छुपा लेती हैं पर अपने अंडरमन की नपुंसकता बाजार में काहे बेच रहे हो!

हाँ, मेरी नज़र ब्रा के स्ट्रैप पर जा के अटक जाती है, जब ब्रा और पैंटी को टंगा हुआ देखता हूँ तो मेरे आँखों में भी नशा सा छा जाता हैं. जो बची-खुची फीलिंग्स रहती हैं उनको मेरे दोस्त बोल- बोल कर के जगा देते हैं. और कौन नहीं देखता है, जब सामने कोई भी चीज आ जाये तो हम देखते हैं. हाँ, यह अलग बात हैं की कोई बताता हैं और कोई छुपाता हैं और कोई बाजार में लुटाता हैं उन कपड़ों का मजाक. पर देखना गलत नहीं है, खुद के अंदर आपको क्या महसूस होता है यह भी नेचुरल है. रस्ते पर चलते-चलते सामने जब टट्टी या गोबर या पॉलिथीन में फेका गया खाना दिख जाता हैं तो मन में भी वैसे ही घिन्न उठती हैं, चाहे आप घर से पूजा-पाठ और खीर-मलाई काहे ना खा क्र निकले हो. लेकिन इसका मतलब यह भी नहीं हैं की अब हम रस्ते वाली घिन्न की बात बता कर के ऑफिस और घर में बैठे दोस्तों के अंदर भी वैसा घृणा भर दे. नज़ारे बेशर्म नहीं होती वह तो एक कैमरा की तरह हैं, जो फ्रेम में आएगा कैप्चर तो होगा ही पर मन की मर्यादा को सेंसर बोर्ड बनाकर उस सीन को काट भी सकते हैं, काटना चाहे तो, अगर बेमतलब बात का मज़ा ना लेना हो तो! महिलाओं के पहनावा और चाल-चलन पर सवाल तो उठाते हैं पर उन मजदूर महिलाओं के फटे ब्लाउज़ को ढकने की बात कोई क्यों नहीं कर रहा हैं. उनकी पूरी ज़िन्दगी तो पेटीकोट और फटी साड़ी में कट जाता है. और हम हैं की पोर्न और ब्रा -पैंटी पर अटके पड़े हैं. अरे मेरी गर्लफ्रेंड या हमदोनों अपनी मर्जी से सेक्स करते हैं पर उसको मैं MMS नहीं बनाता, ना  ही दोस्तों के बीच उस सेक्स की कहानी सुनाता हूँ. क्यूंकि मेरा दिल तो यही कहता हैं की हम दोनों अपनी मर्जी से सेक्स करते हैं, हां मैं ब्रा-पैंटी भी देखता हूँ पर उन बातों को सामाजिक स्तर पर उछालता क्योंकि उनके सम्मान के साथ मैं अपनी मान - मर्यादा का भी ख्याल रखता हूँ. हर इंसान तो अपने कपडे के अंदर नंगा होता है पर इसका मतलब यह नहीं होता हैं हम नंगे घूमे, बोलो आजादी हैं, सोंचो जो जी करता हैं पर अपने मनमर्जियां को किसी और पर थोपो नहीं और ना ही उसको बाजार में नंगा करो. उसको तो नंगा कर रहे हो पर अपनी गिरी हुयी नज़र से खुद को तो बचा लो क्योंकि उसी में से कोई ऐसा भी दोस्त होता हैं जो तुझे कहता है की ' साला! पूरा कुत्ता हैं, हांड़ी में मुँह भी मराता हैं और बाजार में खुद को निलाम भी करता है'. लंगोट का ढीलापन बीवी जानकर छुपा लेती हैं पर अपने अंडरमन  की नपुंसकता बाजार में काहे बेच रहे हो! मुद्दा और भी हैं बहस के लिए यार, महिलाओं को आज़ाद जीने दो.

Thursday 22 December 2016

जानवरों के प्रति जागरूक हैं, तो फिर इंसानों से इतनी बेरुखी क्यों है, साहेब?-

जानवरों के प्रति जागरूक हैं, तो फिर इंसानों से इतनी बेरुखी क्यों है, साहेब?-


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किसी के दुख में शामिल होने से उसका दर्द दूर नहीं होता है. किसी के अर्थी को कंधा देने से उसके परिवार की कमी दूर नहीं होता है पर हां, विकट घड़ी में किसी को भी सहारा देना चाहिए. इससे हमारे व्यक्तित्व का परिचय होता है. ओड़िशा के कालाहांडी जिला के दानामांझी को अपने पत्नी का लाश 60 किमी तक कंधों पर ढोना पड़ा, उसी राज्य के संबलपुर निवासी चंद्रमणी को भी किसी ने साहारा नहीं दिया तो लकड़ी के अभाव में कंधे पर ले जाकर दफन कर दिया और इसी राज्य के नयागढ की एक मजदूर महिला को अपने पति के लाश को नागपुर के किसी ट्रेन में छोड़कर मजबूरन आना पड़ा. ऐसी ओर भी बहुत-सी घटनाएं है उदाहरण के लिए पर अब तो इंसान ही उदाहरण का पात्र बन गया है घटना-दुर्घटना का. लेकिन जब यह मामले सबके सामने आते है तो भारत-पाक की तरह बातूनी युध्द शुरू हो जाता है, आज के मीडिया-जगत में. सोशल नेटवर्क और मीडिया खबरों ने तो मानव संवेदना पर सवाल उठाना शुरू कर देते हैं. तरह-तरह की बात-सवालात जैसे कि, इंसानियत मर गई है, लोगों के आंख में अब दयाभाव नहीं हैं आदि-इत्यादि. मैंने भी यह सवाल किए पर आज जब कुछ बातों पर गौर किया तो लगा कि ना दयाभाव मरा है और ना ही इंसानियत खत्म हुई है. यह बात मैं किसी का पक्षधर होकर नहीं कर रहा पर जब मैंने देखा कि हम किसी गाय के लिए रोटी का जुगाड़ कर देते है, गाय के लिए आंदोलन भी करते है तो फिर हमारा दयाभाव मरा कहां है. हां, पर किसी गरीब लाचार को रोटी देने से साफ मना कर देते हैं. गुटखा, सिगरेट के लिए तो खुल्ला करा लेते है, पर किसी अनाथ-बेसहारा को देना हो तो पॉकेट में बस ऐसे ही टटोलकर बोलते है कि यार छुट्टा नहीं है. और अभी तो हम नोटबंदी का सहारा लेने लगे है. पर वहीं पर गुमटी से एक बिस्कुट खरीदकर कुत्तों को शौक से खिलाते है, तो क्या यह इंसानियत नहीं है. कुत्तों को गोद में लेने से हिचकिचाते नहीं और अनाथ से दरकिनार होकर निकल लेते है. पर ऐसा भी नहीं है कि हम इंसानों से प्यार नहीं करते लेकिन उसका जगह बदल जाता है. देखिए कहां पर, जब कुत्ते गली में टॉयलेट करते हैं तो हम बस नजर हटाकर चल देते है या मार कर भगाते हैं, क्योकिं उनको देखने से आंख में घाव निकलता है ऐसा लोगों का मानना है. लेकिन रवैया हम इंसानों के साथ करते तो कितना अच्छा होता की कोई खुले में शौच नहीं करता, सरकार के करोड़ो बच जाते. पर हम तो जब खुले में शौच करने निकलते है तो मानवीय मल महक को सुंघते हुए उस प्रक्रीया में लग जाते है. सब गंदगी, ऊंच-नीच भूलकर शांति से दम निकालते है. कुत्ता-बिल्ली के रोने पर हम उनको मारते है यानि की एक प्रकार से चुप कराते है ताकि अशुभ घटना ना घटे पर पड़ोस में कोई रो रहा हो तो कान में हेडफोन डालकर सो जाते है. बिल्ली-सियार रास्ता काट दे तो थोड़ा रूकर निकलते है चाहे जितनी भी जल्दी क्यों ना हो, भले ही इसके पीछे अंधविश्वास की कहानी है पर सच तो यह है कि हमारी सुरक्षा के लिए ही है क्योकिं जानवर जब भी भागते है तो झुंड में या फिर उनके पीछे अन्य जानवर भी हो सकता है, तो रूक जाने का प्रथा प्रचलित हो गया ताकि एक्सीडेंट ना हो. पर कोई बुजुर्ग रास्ता पार करते वक्त बिच में आ गया तो बोलते है कि अबे मेरे ही गाड़ी से मरना है क्या कई बार तो धक्का मारकर चल भी देते हैं. हम इन जानवरों के लिए रूक सकते है तो फिर इंसान के लिए क्यूं नहीं रूक सकते. किसी को सड़क पार नहीं करा सकते पर किसी सड़क के पार जाने वाले को धक्का तो नहीं मारना चाहिए. किसी गिरे हुए को मत उठाओ पर पर उसकी नजर में तो मत गिरो. बेशक जानवरों से प्यार करो पर इंसान से तो दूरी मत बनाओ. किसी के अर्थी पर पैसा मत लूटाओ पर कंधा तो लगा दो. एक तरफ तो जानवरों से प्यार कर के हम अपनी इंसानियत को दिखा रहे हैं पर इंसान होकर इंसान से ही नजर छुपा रहे हैं. जानवरो के प्रति जागरूक होना हमारी मानवता का परिचय दे रहा है पर दुसरी ओर लाचार-बेसहारा लोगों को दरकिनार करना इंसानियत पर नहीं बल्कि हमारे मानसिकता पर प्रश्न उठा रहा है. अगर ऐसी मानसिकता बनी रही तो फिर एकदिन इन जानवरों से प्यार करने वाला इंसान ही मर जाएगा. एक फूल गुलजार नहीं करता है चमन को/पर एक भौंरा बदनाम कर देता है चमन को’. 

Monday 19 December 2016

एक और दानामांझी: सिंदूर तो दिया,अर्थी न दे पाया चंद्रमणी-


चंद्रमणी जोर और उसके बेटे लाश को बिन अर्थी श्मशान घाट ले जाते हुए।  पिक - नवभारत 

एक और दानामांझी: सिंदूर तो दिया,अर्थी न दे पाया चंद्रमणी-


गरीब को नहीं मिलता/डोली को कंधा/अर्थी कौन उठाता है/जहां मिलता नहीं फायदा/वहां पर मुंह भी नहीं खुलता है/सिंदूर की किमत कम ना होती/तो यह भी नसीब ना होता…’ दाना मांझी के दर्द की कहानी को अभे कोई भूला नहीं कि इस समाज ने एक और दीना को पत्नी की लाश ढोने को मजबूर कर दिया. यह कहानी बरगढ़ जिला में गुजारा कर रहे चंद्रमणी जोर की है, जो कि अपनी पत्नी के लिए अर्थी ना बना पाया तो कंधों पर ही लाश को शमशान घाट तक लाश बनकर ढोया. ना लकड़ी नसीब हो पाया और ना ही आग पर दो गज जमीन में दफना कर बीवी को अंतिम विदाई दे दिया. फूटकर रो भी ना पाया, अगर रोता तो फिर अंतिम संस्कार कौन करता. कौन पोंछता उसके आंसूओं को, कौन रोकता उसके दर्द के दरिया को? यह समाज, जिसने ना कंधा दिया, ना लकड़ी तो क्या ये उसके आंसुओं को पोंछते. शायद यह सब सोंचकर काठ बन गया था कलेजा उसका. वैसे इस समाज ने उसे कठ-करेज तो कहा ही होगा, पर कठ-करेज कौन है? बरगढ जिला, भेड़ेन ब्लॉक के उदेपुर गांव के लोग कठ-करेज ना होते तो कम से कम एक बांस तो अर्थी के लिए दे दिए होते. अरे, सौ-पचास ना सही बस कोई एक आकर भी तो कंधा दे दिया होता तो शायद आज फिर से ओड़िशा की इस धार्मिक धरती को यह दानवता का घूंट नहीं पीना पड़ता. अच्छा हुआ कि चंद्रमणी के चार कंधे पहले से तैयार हैं. अच्छा हुआ कि ऐसे समय पर उसके तीन बेटे साथ दिए. हालाकि चंद्रमणी जोर जयघंट गांव, संबलपुर जिला का मूल निवासी है पर वह अपने परिवार का गुजारा कराने के लिए उदेपुर में सारमंगला पूजा करने गया था. इस पूजा से मिले दान-दक्षिणा से गुजारा होता है. इसके गरीबी ने यह पहली दफा दर्द नहीं दिया है, इससे पहले बीमार दो बेटी को भी ना बचा पाया और पत्नी हेमबती को भी बीमार ही मरने दिया. क्या करता यह गरीब क्योंकि ओड़िशा के स्वास्थ्य विभाग और आर्थिक स्थिति के बारे में तो हम जानते ही है. इतना ही नहीं यह गुजारा भी कर रहा है तो पेड़ के नीचे. वाह रे हमारा समाज हमें तो कंबल ब्रांडेड चाहिए, घर डेकोरेटेड चाहिए पर हम उनको क्यों नहीं कुछ देते जिनके पास कुछ हैं ही नही. लेकिन चंद्रभूषण ने साबित कर दिया की अब दुनिया मांझी-चमार-दुषाद से नहीं बल्कि गरीबी के दाग से नफरत करने लगी है. वरना इस घर-घर के पुजारी से क्या घृणा थी जो कि एक कंधा और एक बांस तक ना दे सका हमारा यह सामाज. इसी बात को सोंचकर चंद्रमणी भी कठ-करेज बन गया कि अपनी जीवनी संगिनी के अंतिम विदाई पर ना अर्थी दे पाया और ना आग. पर समाज का यह रूप देखकर आग उसके मन में तो जल ही रहा हैं. एक दिन उसे भी तो इसी आग में जल जाना है क्योंकि वह कोई नेता,एक्टर,मुखिया,सरपंच थोड़े ही है जो कि उसको कफन और अर्थी नसीब होगा.

Sunday 18 December 2016

कैशलेश होने में नुकसान क्या है!


कैशलेश होने में नुकसान क्या है!

भले ही किसी टीवी डीबेट का मुद्दा नेशन वांट्स नोट हो पर खबर तो यह है कि अब जेब में पैसा ढ़ोने की कोई जरूरत नहीं है, पॉकेटमारों की छुट्टी. भारत अब कैशलेश हो कर भी धनी बनेगा, सोने की चिड़िया बनने की तैयारी. अब ऑनलाइन पेमेंट करना है, घपलाबाजी खत्म. सरकार से लेकर मीडिया बाजार तक सब के सब यही रट लगाए है, कैशलेश भारत सही तो कोई कह रहा बीजेपी की चाल. जिस फेसबुक और ट्वीटर पर एक-दूजे पर आरोप-प्रत्यारोप का बहस चलता था, अब वहां पर भी नोटबंदी का चर्चा चल रहा है. पहली बार ऐसा लगा की लोगों को देश की चिंता है पर यह सोंच गलत है क्योंकी लोगों को देश की चिंता नहीं जेब और पैसे की चिंता है. तभी तो सब के सब अपने-अपने धन को बचाने में लगे है, चाहे वह दस हजार वाला हो या फिर दस करोड़ वाला नागरिक. बाप बड़ा न भैया, सबसे बड़ा रुपय्या तो सुना था पर आज सबने देख लिया. और आज पैसे के कारण ही संसद को बंद कर दिया गया. लेकिन क्या ऐसा करना देशहित में है. कैशलेश को गलत बतलाकर खुद को बेहतर कहने वाले कालाधन छुपाना तो नहीं चाहते हैंनहीं तो फिर कैशलेश होने में क्या दिक्कत है. इस ऑनलाइन लेन-देन से घुसखोरी, चोरी या साफ शब्दों में कहे तो भ्रष्टाचार खत्म हो जाएगा. आप सब नेता गण तो भ्रष्टाचारमुक्त भारत चाहते है पर ऑनलाइन लेन-देन से डर क्यूं रहें हैं. इस कैसलेश के कारण अब गरीब और विधवाओं का पेंशन से मुखिया-सरपंच कमीश्न नहीं खाएंगे. कॉग्रेस को तो पक्ष में आना चाहिए क्योंकि इंदिरा आवास, मनरेगा जैसे मजदूर की कमाई पर कोई बिचौलिया हाथ नहीं फेरेगा. और भी बहुत फायदे हैं इसके. सबसे बड़ा फायदा तो यह दिख रहा है कि हरदिन करोड़ो कालाधन रखने वाले पकड़े जा रहे है जिसके कारण देश की आर्थिक स्थिति मजबूत हो रही है. फिर आप बताइए क्या देश को फिर से धनी नहीं बनाना चाहिए? गरीबों का पैसा बिचौलियो को खाने देना चाहिए? कल तक तो आप सब देश को सोने की चिड़िया बनाने पर लगे थे, गरीबों के हक के लिए मरने तक को तैयार थे और अपने चुनाव रैली में घंटों खड़े हो जाते हैं फिर इस सकारात्मक काम के लिए क्यों पैर को पीछे खिंच कर रहे हैं. कहीं डर तो नहीं रहें हैं कि अब नोट के बदले वोट नहीं मिल पाएगाअरे, हां अब इस कैशलेश के कारण तो चुनाव भी साफ-सुथरा होना तय है. तो फिर आप अपने छवि के दम पर वोट लिजिए ना. अब गरीब लोगों का हवाला देकर कि, उनको नेट चलाने नहीं आएगा, नेटवर्क प्रॉबलम है, स्मार्ट फोन नहीं खरीद पाएंगे अगेरा-वगेरा...बात कर रहे हैं. पर आज के दौर में लगभग हर घर में युवा लड़का-लड़की है, जिनके पास मोबाइल है. जो बहुत गरीब है उसके पास भी किपेड यानि बटन वाला फोन है.जिसके माध्यम आसानी से हम ऑनलाइन पैसा भेज सकते है. कोई बड़ा देशभक्त बनकर फेसबुक पर लिखा कि पेटीएम इत्यादि के द्वारा विदेशी कंपनीयों को फायदा होगा तो हमें इसका विरोध करना चाहिए. पर विरोध के आग में वे भूल रहे हैं कि फेसबुक, व्हाट्सएप भारत का बना हुआ थोड़े ही है, जिसका उपयोग बेझिझक कर रहे हैं. दुसरी बात यह है कि जब आप व्हाट्सएप्प और फेसबुक चला रहे हैं, तो फिर इंटरनेट के माध्यम से बैंकिग और खरीददारी करने में क्यूं हिचकिचा रहें हैं. चैटींग,पोस्ट,ट्वीट करने में तो बड़ा मजा आ रहा है फिर निष्पक्ष तौर से लेन-देन करने का भी आनंद लिजिए, साहब.