Monday 28 March 2016

निर्भया अभी जिंदा है. लूटने या इन्साफ के लिये !

PC- mynews-vipan.blogspot.com
दिल्ली की दिसम्बर ठण्ड से भरी रहती है, कोई ठंड से तो कोई काम से सो नही पाता है. वैसे भी दिल्ली में भाग दौड के बिना रोटी का मिलना मुश्किल है. लेकिन इस भीड़ भाड़ की दिल्ली में भी कोई लड़की सुरक्षित नहीं हैं, ना घर में ना रोड पर .                                             12 दिसंबर 2012, की रात को भला कौन भूल सकता है. खैर आपने व्यस्तता के कारण भूला दिया होगा लेकिन निर्भया की मां कैसे भूल सकती है, वह कलमुहा दिन. क्योंकि बेटा बेटी को खोना दुर्भाग्य होता है लेकिन अपनी बेटी को बलात्कार का शिकार होते देखना, क्या इससे बडा भी दुर्भाग्यपूर्णं कुछ होगा किसी भी मां बाप के लिये. निर्भया की मां ने कभी भी नही सोचा होगा की 23 साल से सिंच संजो कर रखी बेटी को इस तरह विदाई देना पडेगा. उसकी मां ने तो एक एक दिन जोडा होगा की अब मेरी बेटी आयेगी डीग्री, जॉब लेकर और इसी ख्वाब के साथ तो हर किसी के माता पिता जिंदा रहते है. लेकिन 04 साल से ऐसा ख्वाब नही आया और ना ही आयेगा, निर्भया की मां को. निर्भया कोई पहली लडकी नही है जिसके साथ सामूहिक बलात्कार हुआ क्योंकी इससे पहले भी लगभग 66 बलात्कार प्रतिदिन हुये थे और निर्भया के केस के बाद 90 बलात्कार प्रतिदिन हो ही रहे है. एक प्रकार से देखा जाये तो निर्भया के केस के बाद हम एकजुट व जागरुक दिखे लेकिन नेशनल क्राइम रिकॉर्डस ब्यूरो ने जब शोध कर के आंकडा दिया की निर्भया के केस के बाद बलात्कार दोगुना बढ गया है. यानि की हर 14 मिनट पर कोई निर्भया तो कोई दामिनी लुटी जा रही है, दम तोड रही है. लेकिन जिस दिल्ली में हम इसका विरोध किये वही दिल्ली इस क्राइम के क्षेत्र में पहले स्थान पर है. जन आंदोलन कर के हम लोगों ने विरोध किया और अपराधियों को गिरफ्तार भी करवाया लेकिन आंकडे तो कह रहे है कि हम आज भी खामोश है. निर्भया का केस एक आधार बन गया रेप क्राइम एजेंसी, मीडिया व आंदोलन करने वालों के लिये लेकिन बलात्कार तो अपने रफ्तार से बढता ही जा रहा है. हम कहीं ना कहीं सिर्फ अपने कार्य क्षेत्र व दायित्व के दायरे में सिमट कर रह गये है और समाजिक कर्तव्य को भूला बैठे है. अगर हमें इस बात का ख्याल रहता की निर्भया, दामिनी मेरी अपनी है तो फिर बलात्कार कम होते और अगर रेप होते भी तो हम उन बलत्कारियों को सजा देने के लिए त्वरित फैसला लेते और सब के लिए समान सजा होना चाहिये. क्यूँकि अगर कोई बच्चा होकर यह जान सकता है कि सेक्स कैसे करते है और यही मौका है रेप करने का तो फिर क्या वह बच्चा है. यह कैसा बच्चा है जो व्यस्कों का काम निडर हाेकर करता है. बलात्कार तो बस बलात्कार ही हैं, तो फिर उनको बचाना क्यों, एेसे में बलात्कारी का मनोबल बढेगा ही बढेगा. अन्य चीजों से तो बचने का अवसर भी है लेकिन विश्वास के आड में होने वाले बलात्कार से नारी कैसे बचेगी. अब नारी किससे - किससे बचेगी क्योंकि उसको नोचने वाला बाप, भाई, शिक्षक और अजनबी सब मौके के आड में बैठे है. ऐसे में नारीयों को खुद के ऊपर भरोसा कर के चलना ही बेहतर है, क्योंकि इस लचर व्यवस्था को बेहतर होते - होते तो जाने कितनी निर्भया शिकार हो जाएँगी और नारीयों को मुद्दा बना कर उपभोग होता रहेगा. जाने कितनी निर्भया निर्भय हो कर तमाम क्षेत्र में जज्बें के साथ काम कर रही हैं फिर भी किसी कोने में कोई दामिनी, सूर्यनेल्ली और निर्भया जिन्दा हैं, इंसाफ के इंतजार में या लूटने के लिए, यह बता पाना मुश्किल हैं. 

Sunday 27 March 2016

हिंदी भाषा पर विवाद नहीं कार्य होने चाहिये-


एक पुरानी कहावत के अनुसार भारत में डेढ कोस पर पानी और वाणी बदलते है. यानी की यहां पर हर समुदाय का अपना अपना क्षेत्रीय भाषा है. ज्यादातर ताे आदिवासी बाहुल्य क्षेत्रों में हमें अलग अलग तरह की भाषाएं मिलती है. इसके साथ साथ अन्य तरह की भी विभिन्नता पायी जाती है. तभी तो अखण्ता व विभिन्नताओं के लिये हमारा देश विश्व प्रसिध्द है और इन्ही परिवर्तनों को देखने व अध्ययन के हेतु विदेशी यहां भ्रमण करते है. क्योंकी इतनी विभिन्नताओं के बावजूद भी एकता का होना अन्य देशों के लिये चर्चा व शोध का केंद्र है. लेकिन कुछ सालों से हम भाषा के लिये आपस में विवाद शुरू कर दिये है. परंतु हम यह भलिभांति जान नही पा रहे है की क्या इस तरह से भाषा का   विकास संभव है. वाकई में यह भाषा है क्या? वैसे तो यह कोई छोटा विषय वस्तु नहीं है लेकिन यदि सीधी सपाट शब्दों में बोले तो भाषा संचार या वार्तालाप का माध्यम मात्र है, जिसके द्वारा हम अपनी अभिव्यक्ति , विचार व सलाह को शब्दों के माध्यम से व्यक्त करते है. भाषा सफलता की सीढी है क्योंकी ज्यों ज्याें भाषा विकास के ओर बढा है, त्यों त्यों मानव सभ्यता का विकास हुआ है. भाषा के महत्व और मतलब को समझना है तो किसा गूंगे व्यक्ति से बात कर लिजिये और जरा कल्पना किजिये की जब भाषा नही होंगी तब कितना दिक्कत हाेता होगा, अपने बातों को जाहिर करने के लिये. या हम यूं कहे की भाषा के बिना इंसान गूंगा है. 


आधुनिक काल में भाषा का बढता क्षेत्र- 

आज के दौर में भाषा का क्षेत्र व्यापक रूप से तेजी से बढ रहा है क्योंकी अब तक के विकास मॉडल पर नजर डाले तो हमें पता चलता है कि वास्तव में भाषा कितनी महत्वपूर्णं है. दुसरी तरफ लगभग सारे विश्वविद्यालयों में अन्य देशों की भाषा की पढाई को चालु कर दिया गया है. लेकिन विश्व को प्रथम विश्वविद्यालय और सबसे पुरानी भाषा संस्कृत (भाषाओं की माँ) देने वाला भारत अपनी भाषा का अस्तित्व खोते जा रहा हैं। 

भाषा और विकास का संबंध-
हम जब भी विकास की बात करते है तो अन्य विकसित देशों का उदाहरण देते है लेकिन हम यह गौर ही नही करते है की वाकई में उनके विकास का राज क्या है. हम जापान, चीन या अंग्रेजी भाषी देशों की बात करते है लेकिन यह कैसे भूल जाते है कि इन देशों ने विकसित होने के लिये अपने क्षेत्रिय भाषा को मजबूत किया है. क्योंकी विकास के लिये आम लाेगों का साथ व सहयोग बहुत जरूरी है. आम लोगों को विकास प्लान तो तभी समझ में आएगी की जब सारी जानकारी उनके अपने भाषा में होगी और तभी उनका सहयोग भी मिलेगा. विकास मॉडल तो हम पढते है लेकिन उसके बाधा पर बस एक ऊपरी नजर डालकर के पन्ना पलट कर रख देते है. विकास के लिये भाषा की अहम भूमिका होती है और सबसे बडी बाधा भी. इस बाधा को दूर करने के लिये हमें हिन्दी व अन्य क्षेत्रिय भाषाओं पर व्यापक रूप से कार्य करना ही पडेगा. अब तक अंग्रेजी को सिखने में ही हम काफी साल व्यतीत कर के भी सफल नही हो पाये है क्योंकी हम अपने भाषा में जितना सहज हाे सकते है, उतना अन्य भाषा में नही. 



भाषा विवाद से विकास नही होगा -

यह कोई राजनीतिक मुद्दा नही है लेकिन अब तक तो बस मुद्दाकरण ही होता आ रहा है, हिंदी व अन्य भारतीयों भाषाओं के साथ. अगर भाषा की बाधा को दूर करने के लिये काम किया गया होता तो आज हम विकास के लिये ललाहीत ना होते और गरीबी दूर करने वाली योजना बस फाइल में नहीं बंद रहती. योजनाएं तो बहुत है लेकिन भाषा के वजह से समस्या जैसी की तैसी बनी रहती है. जब नेता चुनाव प्रचार के लिये जाते है तो वहां के लोकल भाषा में भाषण देते है तो फिर जन समस्याओं को सुलझाने के लिये वह एेसा क्यों नही करते है. इसलिये भाषण के आधार पर वोट तो मिल जाता है लेकिन योजना तो समझ के परे की भाषा में आती है. 

कैरे टूटेगा भाषा का बैरियर-
- मीडिया अन्य भाषाओं को प्रयोग कर के अपने भाषा के मौलिकता को न खत्म करे.
- क्षेत्रिय,हिंदी व अंर्तराष्ट्रीय भाषा के आधार पर हो शिक्षा व्यवस्था.
- क्षेत्रिय,हिंदी व अंर्तराष्ट्रीय भाषा के आधार पर हो सरकारी कामकाज.


                                  तीन भाषा कॉन्सेप्ट(क्षेत्रिय,हिंदी व अंर्तराष्ट्रीय) के आधार पर काम किया जाये तो काफी हद तक हम जन समस्याओं को दूर कर सकते है. इस तरह से हम जल्द ही विकास कर पायेंगे और लोगों का रूझान अपने भाषा के प्रति बढेगा. खैर अन्य भाषा में पकड बनाना अच्छा है और दुसरी भाषा को भी जानना चाहिये लेकिन अपनी भाषा को छोड देना उचित नही है. हिंदी का क्षेत्र सिकुडता जा रहा है. क्योंकि हमने अन्य देशों की भाषाओं को ज्यादा बढावा दे रखा है. इसके पीछे कारण है की हिंदी में अब तक कोई कार्य विश्व स्तरीय रूप से नही हुआ है. यहां तक कि ना कोई विकास का मॉडल, ना थ्योरी और ना ही कोई ढंग की मीडिया की किताब ही मिलेगी तो एेसे में हमें भाषा के बढते दौर में हिंदी के ऊपर भी विशेष ध्यान देने की जरूरत है.

Saturday 26 March 2016

'बिहारी पानी' का बंद होना ही नशामुक्ति!- "उसके बाद गुटखा, पान मसाला बन गया. इतना ही नही सरकारी कर्मचारी ही गुटखा खा कर अपना दांत व कार्यालय खराब कर के रखे हुये है तो फिर आम जनता से क्या उम्मीद किया जा सकता है. "

PC- www.mobieg.co.za

शराब तो शराब है चाहे आप एक बूंद ले या फिर एक बोतल, देशी ले या विदेशी. दारू व समाज का सबंध तो सदियों पुराना है और आज भी है. लेकिन उस वक्त मदिरा बस मदिरा होता था. आज तो अलग अलग नाम से शराब बिकते है और विदेशी शराब ने तो भारत को अपने वश में ही कर लिया है. ठीक वैसे ही जैसे की कोई सेठ आदमी किसी गरीब को कर लेता है, जी हुूजुरी के लिये या फिर जमीन हडपने के वास्ते. खैर मनसूबा जो भी हो लेकिन इतना तो है कि शराब का लत ठीक नहीं होता है, चाहे देशी हो या विदेशी. गांवो में देशी पी कर रामा बरबाद हाे गया और शहर का विदेशी दारू गटक कर मालया. ये दोनों अब अस्पताल में पडे अल्कोहाल का उचित रूप में सेवन कर रहे है लेकिन दोनों का बच जाना तो मुमकिन नहीं है. और ना जाने कितने है शराब के लूटे हुये. शराब ने भारत को गरीब बनाने में अपनी सक्रिय भूमिका निभाई है, हालांकि यह आम बहाने की बात है की इससे दर्द दूर होता है, चाहे वह दर्द दिल टूटने का हो या मेहनत मजदुरी का. बहाना इसलिये कहा क्योंकी की दर्द दूर करने के लिये तो दूध व हल्दी से तो बेहतर तो कुछ भी नहीं है लेकिन क्या करें पीने वालों को तो बस बहाना चाहिये और समय जो भी हो रहा हो भट्ठी खुला होना चाहिये. यह बहाना और भट्ठी छोटी है लेकिन कितने घर परिवार को इसने तबाह कर दिया और अभी पता नही कितने होंगे. इस बरबादी से हर कोई वाकिफ है लेकिन क्या करे जब हमारी सरकार ही इसे लाइसेंस दे रखी है. जितने हमारे यहां विद्यालय नही है उतने तो मदिरालय है. हमारे अर्थशास्त्रीयों के अनुसार यह लाभकारी है क्योंकी सबसे ज्यादा कर वसूली का यह केंद्र है, लेकिन घर को जलाकर घर बनाना विकास है क्या! शराब होने वाले नुकसान को हर कोई जानता है क्योंकी लगभग हर घर में देशी विदेशी पीने वाले मिल ही जायेंगे. आज के दिनों में शराब हमारे समाज का पहचान बन चुका है और खास कर के बिहार राज्य तो बदनाम है शराब के वजह से. बिहार के पीने वालों ने हर राज्य में अपना छाप छोडा है और अलग अलग राज्यों में अलग अलग नाम है जैसे बिहारी पानी, झिल्ली, पाउच, इत्यादी. इसमें बुरा मानने वाला कोई बात नही है क्योंकी गुनाहगार तो दोनो है क्योंकी पीने वाले के साथ साथ पीलाने वाले भी भागीदार है. शराब को बंद करने व बिहार को नशामुक्त करने के लिये सरकार ने कदम तो उठा लिया है और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने लोगों से अपील भी किया है. बिहार के लोगों में कुमार के प्रति प्यार तो है लेकिन इस प्यार के लिये शराब से नाता तोडना क्या मंजूर करेंगे लोग. गुटखा को बंद करने के लिये भी सरकार ने कदम उठाये लेकिन उसके बाद गुटखा, पान मसाला बन गया. इतना ही नही सरकारी कर्मचारी ही गुटखा खा कर अपना दांत व कार्यालय खराब कर के रखे हुये है तो फिर आम जनता से क्या उम्मीद किया जा सकता है. केवल देशी शराब के बंद होने से न शराब से मुक्ति मिलेगा और संभावना है की देशी सेवन वाले अब कमाई का एक भी रुपया घर पर  न दे, अनाज बेच कर पीने वाला गहना बेचने लगे और कुछ हो न हाे शराब माफिया इसका नाम बदलकर बिहारी पानी तो दे ही देंगे क्योंकी यह केवल बडे फायदे का सौदा जो है. अगर मुनाफा नहीं है तो फिर शराब को ही बंद कर देना चाहिये, चाहे वह देशी हो या विदेशी.


Friday 25 March 2016

खुद के हाथों से ही अपने चेहरे पर रंग लगाना होगा-"... तन के तार छूए बहुतों ने/ मन का तार न भीगा/ तुम अपने रंग में रंग लो तो होली है. होली हमारी है और सच में जब तक कोई अपना न छू दे तो फिर ऐसी होली का क्या मतलब!

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रंगों व पकवानों के त्यौहार होली में हर कोई बच्चों के जैसे मस्ती मिजाज से भरा रहता है. क्योकिं फगुआ बयार का असर ही एेसा होता है और प्राकृतिक परिवर्तन का मजेदार असर इसी मौसम में देखने को मिलता है. परिवर्तन तो इस कदर का होता है कि बुजुर्ग भी जवान और गांवों की काकी भाभी बन जाती है. यूं कहे की बसंती बयार सब लोगों के हया के लिबास को उडा ले जाती है. इसलिये तो देश विदेश में रहने वाले होली में घर आने को बेकरार हाे जाते है और स्पेशल ट्रेनों को पकड कर के घर की ओर खींचे चले आते है. वैसे त्यौहार का खास असर उत्तर भारत में ज्यादा देखने को मिलता है लेकिन धीरे धीरे इसका प्रचलन अन्य प्रदेशों व देशों में भी देखने को मिल रहा है. हमारे पडोसी देश पाकिस्तान ने तो इस बार हाेली मना कर के एक नायाब तोहफा दिया है. वैसे अगर होली मनाने के पीछे तो कई तथ्य दिये गये है लेकिन इसके बढते रोचकता को देखते हुये कहा जा सकता है कि होली तो बस मिलन कराने का माध्यम है, शिकवा गिला को भुलाने का दिन है और प्यार भरे मौसम से मस्ती चुराने व लूटाने का दिन है. ऐसे मौसम में कविता, शेरो शायरी तो यूं ही निकलने लगती है. तो आप खुद सोंचिये की इस होली को मनाने का क्या राज है. जोगीरा (होली में गाया जाने वाला प्रमुख गीत) जिसके एक सा रा सरा रारारारा से समां भर जाती थी लेकिन यह परम्परा अब खत्म हो रही है क्योंकी इसकी जगह तो अश्लील गानों व डीजे ने ले ली है. लेकिन इस मौसम का मजा अब किरकिरा हाे रहा है, जब हम शराब, गांजा इत्यादी का सेवन कर लेते है और मारपीट व छेडछाड कर के अपने साथ साथ अन्य लोगों को भी मुसीबत में डाल देते है. इन्हीं सब के वजह से होली के दिन बहुत लोग अपने घरों से बाहर नहीं निकले और इस त्यौहार को हम शराब व अश्लीलता का पहचान दे कर के इसकी शालीनता व उमंग का विलय कर रहे है. घर घर घुम कर के रंग गुलाल लगाना व जाेगीरा का आनंद उठाना खत्म हो रहा है. अब तो हम  पुआ पकवान का मिठास भी भूल गये है. लेकिन इस कदर सिलसिला जारी रहेगा तो एक दिन ऐसा आयेगा की हमें खुद के हाथों से ही अपने चेहरे पर रंग लगाना होगा. माखन लाल चतुर्वेदी विवि. के विभागाध्यक्ष पीपी सिंह के फेसबुक वाॅल की यह पंक्तियां तुम अपने रंग में रंग लो तो होली है / देखी मैंने बहुत दिनों तक/ दुनिया की रंगीनी/ किंतु रही कोरी की कोरी/ मेरी चादर झीनी/ तन के तार छूए बहुतों ने/ मन का तार न भीगा/ तुम अपने रंग में रंग लो तो होली है. होली हमारी है और सच में जब तक कोई अपना न छू दे तो फिर ऐसी होली का क्या मतलब!

Tuesday 22 March 2016

इ हमार बिहार, दी सबके बहार- "बस यूं ही प्यार देते रहिये ताकि मिशाल बने हम समाज के लिये और आने वाले वर्तमान के लिये."

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इ चाणक्य के धरती बिहार, हां! वही जिसने राजनिती को जन्म दिया और अइसे कहे कि लोकतंत्र के ऊर्जा. काहे की बिना राजनिती के तो जनतंत्र बिल्कुल अधुरा है, ठीक वैसे ही जैसे बिना पेट्रोल की बाइक. चन्द्रगुप्त के एक विचार के ऊपर मोटे मोटे राजनितीक ग्रंथ लिखे गये और आज भी कोई न कोई तो लिख ही रहा होगा. आज आप जो भी देख रहे है राजनिती के क्षेत्र में, नेता और नेतृत्वकारी का बढता क्षेत्र सब यही की ऊपज है. आज तो हाल ऐसा है की हर घर में नेता है और हर जिले में राजनितीक पार्टीयां. चाहे महागठबंधन हो या राजनिती के नये नये चाल, बिहार देता है. देश के पहले राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद, छात्र नेता के जनक जय प्रकाश नारायण और आज के प्रसिध्द सफल नेता लालू प्रसाद यादव व नीतीश कुमार इन्ही की देन है. हमारा तो डीएनए ही राजनिती का है और ब्लड ग्रुप भी. कुशल समाजिक विचारकों के वजह से ही तो हमने विश्व का पहला नालंदा विश्वविद्यालय दिया. भोजपुरी को तो प्यार सब करते है लेकिन बिदेशिया के लेखक व निर्देशक ने इसको देश विदेश में पहुंचाया तो फिर उनकाे कैसे बिसार दे. आज तो भोजपुरी गानों पर विदेशी भी थिरकने लगे है, विश्वास नही है तो अमरिका में रिमेक हुआ लालीपाप लागेलु सुन लिजिये. और यहां की बोली तो इतनी प्यारी है की हिंदी के फिल्मों में इसका व्यापक रूप से प्रयोग हो रहा है और कई सुपरहिट फिल्मों का यह राज है. यह एक नयी क्रांति भर रही है बालीवुड के फिल्मों में. इन्हीं प्रभावों से तो बिहार सरकार इस बार प्रभावित हाे बिहार फिल्म प्रोत्साहन नीति बनाने का संकल्प ले लिया है ताकि उदित नारायण, मनोज वाजपेयी, नवाजुद्दीन सिद्दीकी, संजय मिश्रा, पंकज त्रिपाठी, नीतू चंद्रा जैसे अन्य बिहारी कलाकार उभरे व अपनी पहचान बना सके. बिहार तो विहार का केंद्र इतिहास काल से ही रहा है और फिलहाल में हमारी सरकार ने इस पस विशेष ध्यान देते हुये, विशाल संग्रहालय और गंगा का सुरक्षित व मनोरम सैर कराने के लिये कार्य शुरु कर दिया है. काहे की बुध्द का गया, राजगिर के पहाड, वैशाली की सभ्यता और मधेपुरा का पेंटींग तो हमें यही राह दिखाता है. विश्वास कर के एक बार बिहार के विरासत का वास्तविक दर्शन तो किजिये. हालांकि दारू के वजह से हम थोडे बदनाम है लेकिन नशा मुक्ति के लिये पहला कदम भी हमने बढा दिया है ताकि अापके खातिरदारी में कमी न हो. जब आयेंगे तो लिट्टी चोखा और बिहारी टानिक सत्तू का आनंद ले लिजियेगा काहे की ऐतना महंगाई में एतना सस्ता, स्वादिष्ट और सेहतमंद कुछ नहीं मिलेगा. क्योंकी इसका स्वाद आमिर खान, अमिताभ बच्चन जैसे अभिनेता भी ले चुके है. चाहे विदेश हो या देश हम लोग हर जगह अपनी पहचान बना रहे है अौर समाज को एक नया आयाम देते हुये आ रहे है. उदाहरण बहुत है और आपके सामने है. इतिहास व आज के आंकडो को देखिये हमने जब भी किया, नया व सृजनशील किया और उदाहरण बने समाज के लिये. यह गुमान के साथ नही बल्कि गर्व से बोल रहा हूं क्योकिं इस गर्व का एहसास भी आपने ही करवाया है और और बस यूं ही प्यार देते रहिये ताकि मिशाल बने हम समाज के लिये और आने वाले वर्तमान के लिये.

३०% गरीबों के लिए सामाजिक सुरक्षा क्यों जरूरी हैं ?

विषय - परिचय :- निबंध की गहनता में जाने से पहले विषय से रु - ब - रु होना आवश्यक हैं ,अन्यथा विषय के साथ बेईमानी हो जायेगी और समाज कल्याण की बातों में बेईमानी करना ,सामाजिक - कल्याण के पक्ष में नहीं होंगी। निबंध का विषय " ३०% गरीबों के लिए सामाजिक सुरक्षा क्यों जरूरी हैं ?" इस प्रश्नवाचक विषय में मूलतः 'सामाजिक - सुरक्षा ' व 'गरीबी ' के ऊपर प्रकाश डाला गया हैं।  इनको सरल भाषा में समझना ही प्रभावकारी  होगा इसलिए ' सामाजिक - सुरक्षा '- का सरल मतलब हैं की जन - जन की भलाई (सुरक्षा) और दूसरी तरफ बात की गई हैं 'गरीब या गरीबी ' - यानि की समाज का वैसा भाग जो की अपने आधारभूत आवश्यकताओं को पूर्ण करने में सक्षम नहीं हैं और निर्धनता यह सिद्ध करती हैं की समाज का  चौतरफा  विकास अभी भी बाकी हैं, चाहें वो गरीबी की दर ३० % हो या २० % और भारत सरकार की राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन के अनुसार लगभग २२% लोग आज भी गरीबी रेखा से नीचे हैं। एक विकसित व खुशहाल समाज के निर्माण के लिए यह जरूरी हैं की वो आर्थिक व सामाजिक आधार पर पिछड़े लोगो को सार्वजनिक तौर पर सुविधाएँ उपलब्ध कराये।
                            सामाजिक सुरक्षा तो हर नागरिक के लिए जरूरी हैं लेकिन विशेषतः आवश्यक हैं वैसे जनमानस के लिए जो की असमाजिक खतरों के दायरे में हैं और वो हैं हमारे समाज के ३० % गरीब नागरिक। सरकार इनकी सुरक्षा अथवा विकास के लिए आज़ादी के बाद से ही कार्यरत हैं क्यूँकि  आधुनिक भारत के निर्माता डॉ. अम्बेडकर  के अनुसार - " एक कल्याणकारी समाज के गठन के लिए सबका विकास होना जरूरी हैं " तो फिर ३० % गरीबों को सामाजिक - सुरक्षा देना तो अति आवश्यक हैं और इस संदर्भ में कुछ पैनी व विश्लेषित बातें निम्नलिखित हैं :-
(०१) सामाजिक - समानता: - " समाज में हर व्यक्ति का समान अधिकार हैं और जिस समाज में समानता नहीं हैं , उसका मूल रूप से विकास सम्भव नहीं हैं " डॉ. अम्बेडकर का यह कथन अनुभविक स्तर से देखा जाये तो सही हैं क्यूंकि आज हम समानता के अधिकार के वजह से ही एक लोकतंत्रात्मक देश में हैं और लोकतंत्र में जन - जन की भागीदारी महत्वपूर्ण हैं। जॉन हॉब्स के सिद्धांत - " राज्य की उत्पति व सामाजिक समझौता का सिद्धांत " यह कहता  हैं की सामाजिक तौर से राज्य का निर्माण हो और एक सफल राज्य के निर्माण के लिए यह चुनौती होती हैं की वो अपने नागरिकों को कैसे संतुष्ट रखेगा ? गरीबी के वजह से लोगो का आस्था व संतोष ,सरकार के प्रति टूटता हैं ,इसलिए लोकतंत्र यह कहता  हैं की सबको सामाजिक तौर से समानता दी जानी चाहिए।

(०२) संविधान - सुरक्षा: - लोकतंत्र को बचाने व अर्थकारी बनाने के लिए संविधान बनाया गया हैं।  संविधान ही तो राष्ट्र की सुन्दरता को बढाती हैं। संविधान के द्वारा ही हम किसी राज्य या राष्ट्र को सुचारू व अनुशासित रूप से चलते हैं। संविधान हमें सामाजिक - सुरक्षा की गारण्टी  भी देता हैं। राज्य के नीति निदेशक तत्व भी सभी कॉम निर्वाह मजदूरी , प्रसूति सहायता इत्यादि प्रदान कराता हैं। संवैधानिक सुंदरता को बरकरार रखने के लिए गरीबो को सामाजिक - सुरक्षा देना जरूरी हैं क्यूंकि डॉ . प्रेम सिंह की किताब " उदारवाद की कट्टरता " यह कहती हैं की समाज में समरसता बनाये रखने के लिए सामाजिक - सुरक्षा मुहैया करवाना सरकार का दायित्व हैं।

(०३) आर्थिक - विकास :- किसी भी राष्ट्र के विकास के लिए अर्थव्यवस्था का मजबूतीकरण अनिवार्य हैं। आर्थिक - विकास के लिए यह आवश्यक हैं कि गरीबी को मिटाया जाये क्यूँकि यह विकास कि सबसे बड़ी बाधा हैं। आर्थिक - तंगी के कारण व्यक्ति अपनी मूलभूत जरूरतों को पूरा करने में सफल नहीं हो पता हैं , चाहें भोजन हो या शिक्षा। आर्थिक स्तर से विकास करने के लिए रोजगार का होना आवश्यक हैं और जबतक बेरोजगारी रहेगी , हम सामाजिक तौर से आर्थिक विकास नहीं कस पाएंगे और भारत सरकार ने इसको दूर करने करने के लिए ' रोजगार गारंटी योजना ' को लागू कर के बेरोजगार ग्रामीणों को रोजगार देने में सफल रही हैं।  अर्थव्यवस्था की  मजबूती के लिए यह भी जरूरी हैं की राष्ट्रीय आय को बढ़ाया जाये और राष्ट्रीय आय को बढ़ने के लिए हमें ३० % गरीबी की खाई को भरना होगा ताकि सकल घरेलू उत्पाद और सकल राष्ट्रीय उत्पाद को बढ़ावा मिले। सबका साथ ही हमारे विकास के मार्ग को मंजिल तक पंहुचा सकता हैं।

(०४) स्वस्थ्य व संगठित समाज निर्माण :-  जिस तरह कोई बीमारी मानव शरीर को कमजोर और खोखला बना देती हैं ,ठीक उसी तरह से गरीबी भी समाज के लिए बीमारी की तरह ही हैं , जोम की विकास के राह में बाधा बनती हैं। गरीबी की वजह से आम लोग सही शिक्षा दवा - ईलाज ,भोजन ,आवास  इत्यादि भौतिक जरूरतों को भलीभांति रूप से पूरा नहीं कर पति हैं। जिस समाज में भौतिक जरूरतों का अभाव रहेगा उस समाज का सर्वांगीण विकास तो कतई सम्भव नहीं हैं। भले ही हम युवा भारत का नारा लगा ले  लेकिन वास्तव में तो हम, एक स्वस्थ्य व सुसंगठित समाज का निर्माण कभी कर नहीं सकते हैं। गरीबी यह साबित करती हैं की हम आज भी असामाजिक - तत्वों से ग्रसित हैं और जब से सरकार ने सरकारी योजनाओं जैसे की इंदिरा आवास योजना, राशन - वितरण, सर्व - शिक्षा अभियान , सरकारी अस्पताल व अन्य स्वास्थ्य सम्बंधित योजना , जन - धन योजना , अटल पेंशन योजना इत्यादी योजनाओं  को लागू किया  और  समाज में फलकारी परिवर्तन भी दिखे।

निष्कर्ष :- "सोने की चिड़ियाँ " कहा जाने वाला भारत के लिए गरीबी एक दाग के जैसा हैं और यह हमारे लिए चुनौती बन चूका हैं।  आज भी हम सामाजिक तौर पर आज़ाद नहीं हैं क्यूंकि बेरोजगारी व भूख की जंजीरों ने हमारे कर - पैरों को जकड कर रखा हैं। गरीबी यह बता रही हैं की हम आज भी मोहताज हैं रोटी , कपड़ा और माकन के लिए।  गरीबी की गुलामी ने हमे असुरक्षा के दायरे में खड़ा कर रखा हैं , तभी  तो आज हम सामाजिक सुरक्षा के लिए चिंतित हैं ,लेकिन सच तो यह भी हैं की संघर्ष , मानव सभ्यता के साथ ही चला आ रहा हैं और हम सामाजिक - सुरक्षा के माध्यम से आज गरीबी की दर को ७३ % से घटा कर आज ३० % तक ला दिए हैं लेकिन सवाल तो यह भी उठता है की योजनाएं तो ४० - ५० वर्षों से चलाई जा रही हैं और हम आज भी गरीबी की गिरफ्त में हैं तो हम इस बात से कतई इंकार नहीं कर सकते है की इसके लिए हम खुद ही जिम्मेवार है क्यूंकि हमने अपने सामाजिक दायित्व को निः स्वार्थ भाव से निभाया नहीं हैं। महात्मा गांधी का " न्यायसिता का सिद्धांत " यह कहता हैं की समाज के उच्चवर्गीय लोगों  का यह दायित्व बनता हैं की वो पिछड़े - वर्ग को भी अपने साथ ले कर चले और गाँधीजी हृदय परिवर्तन की बात करते हैं तभी तो आज गैर - सरकारी संग़ठन भी समाज के उठान के लिए काम कर रहे हैं ताकि समाज में आर्थिक व सामाजिक तौर से समानता आये और हम भी विकसित देशों में शामिल हो जाये। गांधीजी की किताब "मेरे सपनों का भारत" में भी सामाजिक उत्थान के लिए गरीबों को सामाजिक स्तर से उठाने की बात की पुष्टि करते  हैं। सचमुच में हमे फिर से भारत को "सपनों का भारत" बनाना हैं तो गरीबों की गिनती को शून्य करना होगा। लोकतंत्र यह कहता हैं की समाज में सबका समान अधिकार हैं और इस समानता की समरसता को बनाये रखने के लिए हमें जन - जन को सामाजिक , आर्थिक व राजनैतिक रूप से मजबूत बनाना ही होगा।

सन्देश :- मेरी यह स्व - रचित कविता "फिर सोने की चिड़ियाँ उड़ेगी " विषय को बताती हुयी -
फिर सोने की चिड़ियाँ उड़ेगी
गरीबी मिटेगी बेरोजगारी हटेगी
गरीबी मिटेगी राष्ट्रीय आय बढ़ेगी
गरीबी मिटेगी अराजकता  घटेगी
गरीबी मिटेगी तभी सँविधान की गरिमा बचेगी
गरीबी मिटेगी तो लोकतंत्र जीतेगी
बस गरीबों को सुरक्षा के साथ मौका दो
गरीबी मिटेगी गाँधी स्वप्न सजेगी
गरीबी मिटेगी तभी तो
फिर से सोने की चिड़ियाँ उड़ेगी ।।

Monday 21 March 2016

नरक बना नेहरु नगर का मध्य विद्यालय-- " 460 बच्चों के लिये 05 क्लास रुम, कचरा व बदबु से भरा, अतिक्रमण का शिकार यह बदहाल विद्यालय हैं बिहार की राजधानी पटना का तो फिर बाकि जगहों का क्या हाल होगा ''


विद्यालय का मुख्य हिस्सा 

मैं अब और कहां जाऊं फरियाद करने, कितने पदाधिकारी आये अौर आश्वासन देकर गये लेकीन आज तक हमारा विद्यालय अतिक्रमण को सहन कर के बच्चों को पढा रहा है ताकि इनका पढाई ना रुके. नेहरु नगर मध्य विद्यालय कि प्रभारी प्रधानाध्यापिका मृदुला कुमारी को तो अतिक्रमण शिकायत की एक फाइल ही बनानी पड गयी, जिसके पन्ने लगभग बिहार सरकार के हर एक शिक्षा अधिकारी को प्रतिलिपी के रुप में भेजे जा चुके है. अखबारों में भी इसकी खबर छपी है लेकिन कोई असर नही पडा है. झुग्गी झोपडीयों के बीच में स्थित यह मध्य विद्यालय धिरे धिरे स्थानीय लोगों के अतिक्रमण का शिकार होते जा रहा है.जमीन पर तो कब्जा किया ही है यहां के लोगों ने, साथ ही साथ कचरा घर बना दिया है विद्यालय को.जबकि यहां पर स्थानीय लोगों के बच्चे ही पढते है, जिनके घर में खाने के लाले है जो अपने बच्चों को प्राइवेट विद्यालय में नही भेज सकते है. लेकीन वो लोग अपने बच्चाे को पढाना चाहते है और दुसरी ओर वही लोग स्कूल को बंद करने के कगार पर ले जा रहे है. हालांकि मृदुला कुमारी कई बार यहां के प्रतिष्ठित लोगों के साथ बैठ कर स्थानीय लोगों काे समझाने का प्रयास भी की है, लेकिन कोई सुधार नही दिख रहा है. उनके शिकायत के आधार पर पूर्व जिला पदाधिकारी जितेंद्र कुमार व पटना सदर के अंचल पदाधिकारी भी जायजा लेकर जा चुके है. अभी तक कोई कार्रवाई नहीं हाे पायी है शिक्षा के मंदिर के माहौल को बिगाडने वालों पर और ना ही कोई आशा की किरण दिखायी दे रही है. लेकिन बच्चों के भविष्य को लेकर चिंतित मृदुला कुमारी को आज भी उम्मीद में है. 


क्या है समस्या

1.जमीन पर स्थानीय लोगाें का कब्जा बढते जा रहा है और जगह के अभाव में आठवीं तक का यह विद्यालय सिर्फ पांच रूम में बामुश्किल से चल रहा है. खेलने के लिये मैदान नही है. गैलरी के बीच में ही हैंडपम्प लगा हुआ है जिसके वजह से चारों तरफ पानी फैला रहता है, जिसके वजह से कई बार शिक्षक व बच्चें गिरते रहते है. हालांकि कुछ विभागीय आदेश से मध्यान भोजन बंद है लेकिन हमारे यहां किचन के लिये भी कमरा नही है. इस वजह से पहले भी भोजन बाहर से आता था.
2. विद्यालय गेट पर पुरूष मूत्रालय बनने के वजह से काफी दिक्कत हो रहा है क्योकि यहां पर महिला शिक्षिका व छात्रा ज्यादा है और बदबू भी बदहाल कर दी है. 
3. धुम्रपान रहित नही है विद्यालय क्योंकी गेट पर गुमटी होने के कारण तंबाकू व सिगरेट यहां पर खुलेआम पीते है. इसका बुरा प्रभाव बच्चों पर पडेगा. इतना ही नही विद्यालय के छत पर बैठ कर गांजा भी खुलेआम बेखौफ पीते है लोग. 

विद्यालय की खिड़की

4. कचरों के वजह से बंद है विद्यालय कि खिडकीयां क्योंकी लोगों ने अगल बगल से कचरा डाल कर भर दिया है और पीछे वाली खिडकी को खोलने के साथ ही गोबर से भर जाता है क्लास रूम.

मल से भरा हुआ शौचालय 

5. विद्यालय का शौचालय बना सार्वजनिक, मृदुला बताती है की सुबह सुबह यहां के स्थानीय लोग बाउंड्री फांद कर घुस आते है और इधर उधर लेट्रींग कर के गंदा कर दिया है. अब यह शौचालय भर के बंद हो चुका है जिसके वजह से सबसे ज्यादा परेशानी बच्चीयों को हो रहा है.
अधिकारी भी बेखबर

अंचल पदाधिकारी को सौंपा गया आवेदन 
नेहरु नगर मध्य विद्यालय कि प्रभारी प्रधानाध्यापिका मृदुला कुमारी ने पटना सदर के अंचल पदाधिकारी को आवेदन 19.03.2015 को ही दिया था और लगभग बिहार सरकार के अन्य शिक्षा अधिकारी को प्रतिलिपी भेजी है. लेकिन उनके शिकायत के आधार पर पूर्व जिला पदाधिकारी जितेंद्र कुमार व पटना सदर के अंचल पदाधिकारी भी जायजा लेकर जा चुके है. अभी तक कोई कार्रवाई नहीं हाे पायी है.

मृदुला कुमारी,प्रभारी प्रधानाध्यापिका

क्या कहते है शिक्षाकर्मी 

'' ऐसे मैं बेहतर संतुलित शिक्षा की कल्पना नही की जा सकती है और प्राइमरी शिक्षा ही बच्चों का भविष्य तय करता है. लेकीन इस तरह की कुव्यवस्था के लिये जिम्मेवार कोई भी हो लेकीन नुकसान तो उन अबोध बच्चों का ही है, जो की यहां पर ज्ञान लेने के उद्देश्य से आये है और अतिक्रमण का शिकार हो रहे है. यह हमारे समाज के लिये भी घातक है. मैं 1987 से यहां पर काम कर रही हूं ,इस नाते व समाजिक दायित्व समझ कर बच्चों को उनका हक दिलाऊंगी''.
मृदुला कुमारी, ( प्रभारी प्रधानाध्यापिका)



''सरकार को सुविधाओं के साथ साथ जांच भी करना चाहिये ताकि शिक्षा व्यवस्था को और भी संतुलित व उच्च गुणवत्ता वाला बनाया जा सके. हमारी तरह अन्य भी विद्यालय होंगे जो की अतिक्रमण का शिकार हो रहे हाेंगे. सरकार को इस पर ध्यान देना चाहिये ताकि शिक्षा का वास्तविक उद्देश्य पूरा हाे. मैं एक माँ होने के नाते इतना कहना चाहूंगी की ये मेरे बच्चे के जैसे है और इनको अधिकार दिलाना मेरा कर्तव्य है''.
मंजू कुमारी सिंह, (शिक्षिका)

Sunday 20 March 2016

मानसिक अवसादों से भर रहा राष्ट्र का घाव

रविन्द्रनाथ टैगोर, इकबाल, सुमित्रानंदन पंत, बंकिमचंद्र, पाश और भी बहुत सारे महान कवि व लेखको ने देश का गुणगान अपने अपने ढंग और अपने इच्छा से व्यक्त किया आज के दौर में भी जारी है यह सिलसिला. क्योंकी हर इंसान को अपने वतन से प्यार होता है, चाहे वह व्यक्ति अपने निजी जिंदगी में कितना भी बुरा क्यों न हो. जब देश की बात होती है ताे रिक्शा वाला हो या फिर विमान वाला कोई अपने देश की बुराई नहीं करता है क्योंकी मिट्टी प्यारा न कोई रिश्ता है और न ही कोई धर्म. देश सुरक्षित है तो सब सुरक्षित है और यदि देश असुरक्षित है तो फिर ना फिर मां बचेगी और ना ही कोई धर्म कर्म. यानि की देश की इज्जत ही हमारी मान मर्यादा और संपति है. इसलिये तो कहा जाता है राष्ट्र प्रथम लेकिन जरा आज के मौजूदा भारत पर एक नजर डालिये तो क्या प्रथम है, धर्म जाति पार्टी या देश! आप चाय दुकान पर जाइये या फिर डायमंड दुकान पर हर जगह पर बस एक ही चर्चा चल रहा है की कौन राष्ट्रवादी है. बाकी आप अखबार और टीवी पर तो रोज नयी नयी परिभाषा देख व सुन ही रहे है, कोई लाल सलाम बोल कर लाल हो रहा है तो कोई भारत माता की जय बोल कर खुद को देशभक्त बता रहा है लेकीन वास्तव में देखिये तो ये बस अपना अपना लय बना रहे है आम लोगों का हीरो बनने के लिये. क्योकी भारत की आजादी के लिये लडने वालों ने सिर्फ देश के लिये लडा और खुद को मिटा दिया मिट्टी के लिये. कभी भी सुबाष चन्द्र बोस ने यह नही कही था की जो लोग 'तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आजादी दूंगा' का नारा नहीं लगायेंगें वो देशभक्त नही है और ना ही बापू ने कभी किसी तरह के नारे के आधार पर देशभक्ति का प्रमाण दिया. हां यह सच है कि उस वक्त हर क्रांतिकारी दल का अलग अलग नारा था लेकीन लक्ष्य केवल एक था भारत की आजादी और ना ही कभी किसी क्रांतिकारी ने किसी अन्य क्रांतिकारी को गलत कहा. सीधी सपाट बात तो यही है की देशभक्त बनने का कोई मापदंड नही होता है, न ही राष्ट्रप्रेम का कोई परिभाषा और ना ही कोई यह साबित कर सकता है की देश से कौन कितना प्यार करता है. बीबीसी हिंदी वरिष्ठ विश्लेषक आकार पटेल के  एक लेख के अनुसार भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रवाद की बुराई अंतर्राष्ट्रीय मिडीया में भी जोरो से हो रही है. यह शत् प्रतिशत सच भी है क्योंकी बीजेपी के सत्ता में आने के बाद खान पान, जन आंदोलन, रंग, बोल चाल ये सब कुछ देश विरोधी होने लगा क्योकि बीजेपी वालो काे यह पसंद नही है.भारत के वरिष्ठ पत्रकार ओम थानवी, राजदीप सर देसाइ व अन्य पत्रकारों ने भी कडी निंदा की और अन्य राष्ट्रीय स्तर की मिडीया भी आज तक आलोचना कर रही है लेकीन अपनी धुन में गुम इन लोगो पर कोई असर ही नहीं है. देश की बदनामी देश के बाहर तक होने लगी है और हम है की राष्ट्रवाद के आड में बस खुद को मशहूर करने में मशगूल है. क्या वाकई में हम इतने अवसरवादी हो गये है की देश के गले को बांध कर बस मुद्दा उछाल रहे है. 

Tuesday 15 March 2016

भूख के दम पर करतब दिखाती जिंदगी -


 रोटी के लिए टूटना 

चौराहे पर भूख से भटकती जिंदगी क्या कुछ करने को मजबूर नहीं हो जाती हैंयूंही नहीं कोई अपनी जिंदगी को दाव पर लगा देता हैक्योंकि जिंदगी से ज्यादा प्यारी कोई भी चीज नहीं है इस धरा पर और क्या चिटीं और क्या इंसानहर किसी को अपने जान की परवाह होती हैंलेकिन यदि वह अपनी जिंदगी को दाव पर लगा दिया तो जरा सोचिएकि रोटी की क्या किमत हैसिर्फ एक निवाले के लिएबस एक जोड़ी कपड़ा दुनिया के नजर से छुपाने के लिए और एक छत धूप -बारिश से सर को छुपाने के लिए भले ही वह घास-फूस या खपङैल ही क्यों ना होक्योंकि यही तो है हमारी प्राथमिक आवश्यकताएं जिनके लिए हर इंसान संघर्ष करता हैलेकिन हमारे पास तो आधार है खङा होने का और कुछ करने कालेकिन मैं जिनकी बात करने जा रहा हूँउनके पास तो कुछ भी नहीं सिवाए भूखे शरीर केतो फिर उसको किस हद तक फिकर होगी रोजमर्रा की जिंदगी को लेकरहम तालियां बटोरने के लिए पैसे लूटा देते हैं और एक यह लोग हैं जो कि बस भूख मिटाने के लिएजान तक को दाव पर लगा देते हैं.


कौन हैं यह लोग 
यह लोग हमारे ही आसपास के क्षेत्रों के हैंजिनका कोई स्थाई ठिकाना नहीं है लेकिन ऐसे लोग हमें हमारे हर चौक चौराहे व गली खुचे में मिल ही जाते हैं.कभी ढोलक बजातेकभी गाते,मदारी दिखाते इत्यादिबहुतायत तो ऐसे भी मिलते हैं जिनको दुनिया की कोई खबर नहीं है.भूख इनकी मानसिकता को इस कदर बदल दिया है कि इन्हें बस रोटी दिखाई देता हैचाहे वह कचङे के डिब्बे में हो या फिर रोड परठंडी हो या गर्मी क्या फर्क पड़ता हैक्योंकि इनके बदन हालातों के चपेट में आ कर सुन्न हो गए हैं और जिसको थोड़ी सी परवाह हैंउनके लिए तो अखबार व बोरी ही काफी है ताउम्र बदन ढँकने के लिएआप चाहें सफर में हो या कहीं भीमिल ही जाते हैं ऐसे लोगयह लोग पहचान के मोहताज नहीं है लेकिन विडम्बना तो यह है कि इनकी गिनती होती ही नहीं है वास्तविक रूप से.

आँकङो पर उठते सवाल 
हालांकि आप अगर रिपोर्ट ढूंढने के लिए बैठेंगे तो हजारों तरह के शोधकर्ताओं का आंकड़ा मिल जाएगा लेकिन परिवर्तन तो आपको एक प्रतिशत भी नहीं मिल सकता हैकिस आधार पर इनका आँकङा बनाया जाता है क्योंकि यह तो कहीं भी स्थाई रूप से नही रहते हैं.  365 दिन में से पूरा 365 दिन भटकते रहते हैं,गुजारा करने के लिएआज दिल्ली तो कल कलकत्ता यह है इनकी जिंदगीयह भी हुआ होगा कि कितने लोगों का दो तीन बार तो किसी का एक बार भी गिनती नहीं हुआ होगा सुधार हेतुजब प्रारंभिक कार्य ही व्यवस्थित रूप से नहीं हुआ है तो फिर आगे की रणनीति या प्रक्रिया का विफल होना तय हैतो अगर ऐसा किया जाए कि पूरे भारत में एक साथ एक समय में सर्वे कराया जाये और साथ ही साथ उन्हें पहचान के साथ रहने के लिए जगह भी उपलब्ध कराया जाये तो काफी हद तक हम इस समाजिक विफलता को दूर कर सकते हैं.यह इतना आसान नहीं है लेकिन धीरे-धीरे इनकी संख्या बढ़ रही है और पीढी दर यह पनपता जा रहा हैजो कि हमारे समाजिक विकास के लिए अवरोधक बनते जा रहा हैक्योंकि आर्थिक समाजिक विकास के आंदोलनकारी अम्बेडकर के अनुसार "समाज के चौतरफा विकास के लिए जरूरी है कि सबसे पहले कार्य की शुरुआत निचले स्तर के लोगों के साथ किया जाये".

क्या है इनका पेशा 
जिंदगी के प्यासे रंग 
जिस तरह से इनके घर का ठिकाना नहीं हैठीक उसी तरह इनका कोई एक मूल रूप से कार्य नहीं हैलेकिन मुख्य रूप से हमने इनको जानलेवा करतब दिखाते हुए देखा हैंजैसे कि पलकों से सुई उठानालोहा के सरिया को गर्दन व कमर के बल से मरोड़ना,बोतल के ऊपर खङा हो कर नाचना और बदन को तोड़ मोङ कर गोल कर लेनायह सारे करतब दिखाने वाले वैसे मासूम बच्चे हैं जिनको विद्यालय में होना चाहिएयही बच्चे आगे चलकर शराबी बन जाते हैं या फिर बहुत बार देखने को मिलता है कि अन्य बुरी लत के से भी ग्रसित हैं या किसी असमाजिक गतिविधियों में शामिल हो जाते हैं और जो इन सब से बचते हैं वह इस पेशे को जिंदा रखते हैंबाकी तो आपने सपेरा व मदारी वालों को भी देखा ही हैंसर्कस भी इन्हीं कि खोज हैं लेकिन आज के दौर में वह अंतरराष्ट्रीय व्यवसाय बन गया है और यह लोग आज भी जागरूकता के अभाव में भटकते फिर रहे हैंइन लोगों की बहुत सारी कलाअों का प्रयोग हम व्यापक रूप से कर इनकी आर्थिक वृद्धि बढा सकते हैं और एक ढंग की जिंदगी दे सकते हैं लेकिन अफसोस कि हमारा ध्यान इन पर जाता नहीं हैजाता भी है तो बस दो चार छुट्टे पैसे डाल कर निकल लेते हैंबच्चों से खतरनाक करतब दिखानासांप पकड़ना,भालू का नाच दिखाना सब अमानवीय हैं और यह कानूनन जुर्म भी है लेकिन इन सब तमाशा को नजर बंद कर के देखना क्या समाज के हित में हैंयह खेल'नजरबंदका नहीं है बल्कि जरूरत है हमें जागरूक व क्रियाशील नागरिक बनने का ताकि हमारे समाज की छवि और ज्यादा से ज्यादा बेहतर बने.

बातें जो मन को झकझोर दी 
भूख का  दर्द 
ऐसे तमाशे मैंने कई बार देखा था.परंतु इस बार मैं अपने इंटर्नशिप के दौरान पटना गांधी मैदान से रिपोर्टिंग कर के प्रभात खबर कार्यालय जाने के लिए निकला तो देखा कि बाँस घाट के पास काफी भीड़ लगी हुई हैंमैंने आॅटोरिक्शा को रुकवाया और चल पङा भीङ की ओरजब मैं बच्चों के जानलेवा करतब देखा तो वाकई में मेरे होश उड़ गए क्योंकि ऐसे करतब मैं पहली बार देख रहा था और उससे भी अधिक चौंकाने वाली बात यह थी कि उनके टीम में नन्हीं लङकीयां, 3 नन्हे लङके व पति-पत्नी यानि कि सबसे ज्यादा महिलाएं थीमुझे याद आया कि हाल ही में हम मनाये अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस और दुसरे तरफ देखा महिला कितनी है विवश.बङी मार्मिकता व करूणा भरा पल था जो कि मन मस्तिष्क पर चोट करने लगामैं जब करतब दिखाने वाली एक लङकी से बात किया तो वह बोली की "हां मैं पढूंगी लेकिन खाना फिर कहां से आएगातो यह सवाल मुझे खामोश कर दिया फिर वह लङकी चली गई अपने मां के पासफिर जब मैं उसकी माँ(रेशमीसे बात किया तो वह बताती हैं कि "जब मैं छोटी थी तो उसके माता-पिता उससे यह काम करवायेफिर 14 साल की उम्र में शादी-ब्याह हो गया फिर बच्चे हुएअब यह पेशा मैं अपने बच्चों से करा रही हूँमैंने पढ़ाई तो नहीं किया है लेकिन इतना हैं कि हम लोगों को भूखे नहीं सोना पङता है और ना ही भीख मांगने की जरूरत पड़ती है".  मैंने फिर जब सवाल किया तो बोली कीसाहब जाइये मुझे मेरा काम करने दीजिए क्योंकि बहुत बार बहुत साहब हमारे बात को लिखे हैं लेकिन हुआ कुछ नहीं". मैं जाते-जाते उस अबोध बच्ची से पूछा कि तुमको दर्द नहीं होता है तो वह बच्ची बोली की"जब भूख लगती है तो सब कुछ करना पड़ता है और कुछ दर्द नहीं होता है". और वो लोग अपनी पोटली समेट कर कर चल पङेमैं बिल्कुल हक्का-बक्का खङा रहा बच्ची के जवाब को सुनकरअब मेरे सामने सवाल आ खङा हुआ कि क्या मुझे लिखना चाहिए!फिर मैं सोचा कि मैं तो लिख कर ही कुछ कर सकता हूं तो फिर वहां के लोगों से बातचीत कर के प्रतिक्रियाएं लेने लगा तो मुझे राजेश कुमार ( 07 Day's Restaurant) के मालिक ने कहा कि "मैं ना सरकार को दोषी मानता हूँ और ना ही उनके समुदाय कोलेकीन हम लोग जिस स्तर पर भी हैहमें उसी स्तर से इनकी मदद करनी चाहिए तभी समाज में सकारात्मक बदलाव होगा"और वह हर महीने अनाथ बच्चों को आर्थिक रूप से सहायता भी करते हैंहालांकि यह बात तो बिल्कुल सही है क्योंकि उन बच्चों से जानलेवा काम करवाना व सरकार तथा मिडिया का विफल होनासब तो जुर्म है लेकिन दोषारोपण से हासिल क्या होगा?मैं भी मन ही मन निश्चय किया कि जितना हो सकता है अपने क्षमता के अनुरूप सहायता करूंगा और चल पङा कार्यालय की ओर क्योंकि मैं भी अभी ट्रेनिंग में हूँ इसलिए काम भी जरूरी है ताकि भविष्य में इनके लिए कुछ करूं.जैसे ही कार्यालय के समीप चौराहे पर आया तो देख रहा हूँ कि कुछ बच्चें यहाँ पर भी वही कर रहे हैंभीङ लगी हैतालियाँ बज रही हैंपैसा भी लोग दे रहे हैं लेकिन बस बदला है तो इतना ही भर कीजोखिम भरे करतब दिखाने वाले बच्चों के चेहरे अलग है.


Thursday 10 March 2016

सामान्य जीवनशैली से ही बचेगा पर्यावरण -


" साइंस एक्सप्रेस" इस बार विशेष रूप से जलवायु परिवर्तन की समस्या को लेकर पूरे देश में भ्रमण कर रहा है क्योंकि बढते प्रदूषण ने प्रकृति के अंदर विकृति ला दिया है. जिसके कारण हम आए दिनों बाढ, सुखाङ, अम्लीय वर्षा, बदन जलाती धूप व असहनीय ठंड इत्यादि से परेशान हैं और इस तरह के असमय बदलते जलवायु ने हमारे सामान्य जिंदगी को असहनीय बीमारियों से ग्रस्त कर दिया है और आए दिन हमारा सामना नए - नए रोगों से हो रहा है. लेकिन सवाल यह उठता है कि क्या वाकई में हम साधारण जन - जीवन व्यतीत कर रहे हैं? खुद के ही लाइफ स्टाइल को देखिये जवाब मिल जाएगा क्योंकि हमारी सुबह की शुरुआत केमिकल के साथ होती है और मच्छर कवाइल के साथ सो रहे हैं जबकि हम भलीभाँति यह जानते हैं कि रसायनिक चीजें खतरनाक है हमारे लिए. हम दिनों - दिन अपनी जिंदगी को इतना फैशनेबल व आरामदेह बना दिए हैं कि हम से दातुन भी नहीं हो पा रहा हैं जबकि नीम - बबूल के नाम पर रसायन उपयोग कर रहे हैं और यहां तक कि शर्बत के बजाय कोल्ड ड्रिंक पी रहे हैं जिसको बनाने के लिए हम शुध्द पानी को बेहिसाब बर्बाद करते हैं यानी कि एक लीटर कोल्ड ड्रिंक के लिए लगभग दस लीटर शुध्द जल को प्रदूषित कर के नदी में मिला देते हैं तो सोंचिए जरा क्या यह सही है? अभी हाल ही में भारत सरकार ने मुंबई में हरे बगीचे को काट कर हवाई अड्डा बनाने का आदेश दिया है और भी प्रतिदिन हम ना जाने कितने प्राकृतिक मित्रों को उद्योग में झोंक रहे हैं जबकि हमारे पास अन्य बंजर भूमि भी है लेकिन सरकार को भी यह सोचना चाहिए कि एक तरफ वो प्रकृति के बचाव के लिए करोड़ों रुपए खर्च कर रही हैं और दुसरी तरफ प्राकृतिक के खिलाफ फैसले ले रही हैं तो इसका प्रभाव जनता पर नकारात्मक असर डालेगा क्योंकि सामान्य जन तो सरकारी क्रिया - कलाप के अनुपालक है. खैर! दोषारोपण तो हम वर्षों से करते आ रहे हैं लेकिन अब वक्त आ गया है एकजुट होकर समाधान निकालने का ताकि बढते प्राकृतिक आपदाओं को रोका जा सके. भारत सरकार के द्वारा चलाई जा रही " साइंस एक्सप्रेस" जो कि हमें कार्टून, चित्र व माॅडल के जरिए यह बताने की कोशिश कर रहे हैं कि आधुनिक युग को सुसज्जित व स्वस्थ्य रखना है तो हमें प्राकृतिक सौंदर्य को बरकरार रखना होगा. यह प्रकृति हमें बिना किसी शर्त के फ्री में वायु, जल व भोजन देकर हमारे जीवन को जीवित रखती हैं तो फिर हम इस परोपकार के बदले विनाशकारी तोहफा क्यों दे जो कि सजीवों के पक्ष में  नहीं है. एक बात तो यह साबित हो चुका है कि जैसे - जैसे हम आधुनिकीकरण की ओर बढ़ रहे हैं, वैसे - वैसे जघन्य समस्याओं से उलझते जा रहें हैं तो फिर अब हमें बिना विलंब के अपने विवेक को जगाकर इससे बचने का अथक प्रयास शुरू करना चाहिए क्योंकि यदि हम अपने आसपास कचङे ना फैलाएं तो हमें मक्खी - मच्छर मारने के लिए रसायन का प्रयोग नहीं करना पड़ेगा, यदि हम शर्बत बना कर पीने लगे तो फिर मीठा जहर नहीं पीना पङेगा, यदि पैदल चलना भी सिख जाए तो फिर धुआं पीना नहीं पङेगा व यदि सिगरेट, दारू पीना छोङ कर तनाव मुक्ति के लिए योगा अपनाएँ तो कैंसर से मरना नहीं पङेगा. इस तरह यदि हम केवल अपने आदतों में चेतना जगा दे तो प्रदूषण को मिटाना संभव है नहीं तो वह दिन दूर नहीं जब हम अपने आलीशान सुरक्षापूर्णं मकान में रहने के बावजूद भी बढते कार्बन डाई आॅक्साइड के कारण जल मग्न हो जाए या फिर पराबैंगनी किरणों से जल कर राख हो जाए तो फिर आप खुद ही सोचिये कि क्या वाकई में यही आधुनिकता हैं जो हमें अकाल मृत्यु के ओर धकेल रहीं हैं!