Friday 30 December 2016

इस साल नोटबंदी बना मज़ाक, आप भी जानिए पर जुत्ता मत मारिएगा प्लीज-

इस साल नोटबंदी बना मज़ाक, आप भी जानिए पर जुत्ता मत मारिएगा प्लीज -

साहब, नोटबंदी को लेकर के सब परेशान हैं, मैं भी परेशान क्योंकि मैं ना मोदी, ना राहुल, ना रविश और ना ही खान हूँ. लेकिन पूरी नोटबंदी के मसले में कुछ लोगों ने मजाकिया मशाल भर दिया हैं ताकि यह दर्द कुछ कम हो हो. कल की एक खबर ने बताया की एक लडके ने ख़ुदकुशी कर ली क्योंकि उसको उसकी डार्लिंग ने जिओ से मिस्ड कॉल मार दिया था तो मेरे दिमाग की खुरपाती में एक खबर झाय से आई की चलों भाई अच्छा हुआ की किसी लड़की ने खुल्ले के चक्कर में अपने बॉयफ्रेंड को नहीं नोचा पर मेरे एक मित्रा ने बताया की जब उसकी डार्लिंग के पर्स में खुल्ला पैसा नहीं निकला तो उसने अपनी डार्लिंग का पर्स फेक दिया और बोला चल बे कैश लेस, कॅशलेस हो जाते हैं. कितने लोग कैशलेस हो गए हैं अबतक, मैं तो कहता हूँ की सब कैशलेस हो गए हैं क्योंकि हमारे पास तो कभी कॅश था ही नहीं जो था उसका तो ऐश कर लेते हैं और जिनके पास कॅश था उनपर मोदीजी का ताला लटका हैं तो हुए ना सब कैशलेस. सर मत खुजलाये की मजा नहीं आ रहा है, मजा आएगा फ़िक्र ना कर यारे मजा तो बहुत आएगा, इतना मजा आएगा की तू मजा का मतलब भूल जायेगा और गूगल पर ढूंढेगा जैसे अभी पैसा ढूंढ रहा है. लेकिन पक्का बोल रहा हूँ की मजा आएगा बिलकुल कटरीना की माज़ा की तरह, पक्के हुए आम की तरह, जलेबी की रस की तरह और सनी लियोनी की फिल्म की तरह मजा आएगा पर पहले बैंक में कालाधन तो आने दे यारे तभी तो मजा आएगा जलेबी का, रसगुल्ला का, सनी के लेओनी का सब मजा आएगा काहे की बिना पैसा का तो सुलभ शौचालय वाले खड़ा हो कर निकलने नहीं देते तो फिर बिना पैसा का मजा, क्या  ख़ाक आएगा . 50 दिन तो इन्तेजार कर लिया ना थोड़ा इन्तेजार का और मजा लीजिये ना, फ्री में मिल रहा है. मुझे पता हैं अब आप मुझे जूता मरोगे क्योंकि मैं मोदी जी का सपोर्टर समझ कर. पर आपका जूता पुराना हो गया है और पैसे नहीं है तो जूता फट जायेगा इसलिए फेक कर ना मारे, काहे की फट जाने के बाद मोची भी नहीं सिलेगा काहे की,  भाई छुट्टा नहीं तो फिर नंगे पैर घूमोगे का ? 

Wednesday 28 December 2016

लंगोट का ढीलापन बीवी जानकर छुपा लेती हैं पर अपने अंडरमन की नपुंसकता बाजार में काहे बेच रहे हो!

हाँ, मेरी नज़र ब्रा के स्ट्रैप पर जा के अटक जाती है, जब ब्रा और पैंटी को टंगा हुआ देखता हूँ तो मेरे आँखों में भी नशा सा छा जाता हैं. जो बची-खुची फीलिंग्स रहती हैं उनको मेरे दोस्त बोल- बोल कर के जगा देते हैं. और कौन नहीं देखता है, जब सामने कोई भी चीज आ जाये तो हम देखते हैं. हाँ, यह अलग बात हैं की कोई बताता हैं और कोई छुपाता हैं और कोई बाजार में लुटाता हैं उन कपड़ों का मजाक. पर देखना गलत नहीं है, खुद के अंदर आपको क्या महसूस होता है यह भी नेचुरल है. रस्ते पर चलते-चलते सामने जब टट्टी या गोबर या पॉलिथीन में फेका गया खाना दिख जाता हैं तो मन में भी वैसे ही घिन्न उठती हैं, चाहे आप घर से पूजा-पाठ और खीर-मलाई काहे ना खा क्र निकले हो. लेकिन इसका मतलब यह भी नहीं हैं की अब हम रस्ते वाली घिन्न की बात बता कर के ऑफिस और घर में बैठे दोस्तों के अंदर भी वैसा घृणा भर दे. नज़ारे बेशर्म नहीं होती वह तो एक कैमरा की तरह हैं, जो फ्रेम में आएगा कैप्चर तो होगा ही पर मन की मर्यादा को सेंसर बोर्ड बनाकर उस सीन को काट भी सकते हैं, काटना चाहे तो, अगर बेमतलब बात का मज़ा ना लेना हो तो! महिलाओं के पहनावा और चाल-चलन पर सवाल तो उठाते हैं पर उन मजदूर महिलाओं के फटे ब्लाउज़ को ढकने की बात कोई क्यों नहीं कर रहा हैं. उनकी पूरी ज़िन्दगी तो पेटीकोट और फटी साड़ी में कट जाता है. और हम हैं की पोर्न और ब्रा -पैंटी पर अटके पड़े हैं. अरे मेरी गर्लफ्रेंड या हमदोनों अपनी मर्जी से सेक्स करते हैं पर उसको मैं MMS नहीं बनाता, ना  ही दोस्तों के बीच उस सेक्स की कहानी सुनाता हूँ. क्यूंकि मेरा दिल तो यही कहता हैं की हम दोनों अपनी मर्जी से सेक्स करते हैं, हां मैं ब्रा-पैंटी भी देखता हूँ पर उन बातों को सामाजिक स्तर पर उछालता क्योंकि उनके सम्मान के साथ मैं अपनी मान - मर्यादा का भी ख्याल रखता हूँ. हर इंसान तो अपने कपडे के अंदर नंगा होता है पर इसका मतलब यह नहीं होता हैं हम नंगे घूमे, बोलो आजादी हैं, सोंचो जो जी करता हैं पर अपने मनमर्जियां को किसी और पर थोपो नहीं और ना ही उसको बाजार में नंगा करो. उसको तो नंगा कर रहे हो पर अपनी गिरी हुयी नज़र से खुद को तो बचा लो क्योंकि उसी में से कोई ऐसा भी दोस्त होता हैं जो तुझे कहता है की ' साला! पूरा कुत्ता हैं, हांड़ी में मुँह भी मराता हैं और बाजार में खुद को निलाम भी करता है'. लंगोट का ढीलापन बीवी जानकर छुपा लेती हैं पर अपने अंडरमन  की नपुंसकता बाजार में काहे बेच रहे हो! मुद्दा और भी हैं बहस के लिए यार, महिलाओं को आज़ाद जीने दो.

Thursday 22 December 2016

जानवरों के प्रति जागरूक हैं, तो फिर इंसानों से इतनी बेरुखी क्यों है, साहेब?-

जानवरों के प्रति जागरूक हैं, तो फिर इंसानों से इतनी बेरुखी क्यों है, साहेब?-


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किसी के दुख में शामिल होने से उसका दर्द दूर नहीं होता है. किसी के अर्थी को कंधा देने से उसके परिवार की कमी दूर नहीं होता है पर हां, विकट घड़ी में किसी को भी सहारा देना चाहिए. इससे हमारे व्यक्तित्व का परिचय होता है. ओड़िशा के कालाहांडी जिला के दानामांझी को अपने पत्नी का लाश 60 किमी तक कंधों पर ढोना पड़ा, उसी राज्य के संबलपुर निवासी चंद्रमणी को भी किसी ने साहारा नहीं दिया तो लकड़ी के अभाव में कंधे पर ले जाकर दफन कर दिया और इसी राज्य के नयागढ की एक मजदूर महिला को अपने पति के लाश को नागपुर के किसी ट्रेन में छोड़कर मजबूरन आना पड़ा. ऐसी ओर भी बहुत-सी घटनाएं है उदाहरण के लिए पर अब तो इंसान ही उदाहरण का पात्र बन गया है घटना-दुर्घटना का. लेकिन जब यह मामले सबके सामने आते है तो भारत-पाक की तरह बातूनी युध्द शुरू हो जाता है, आज के मीडिया-जगत में. सोशल नेटवर्क और मीडिया खबरों ने तो मानव संवेदना पर सवाल उठाना शुरू कर देते हैं. तरह-तरह की बात-सवालात जैसे कि, इंसानियत मर गई है, लोगों के आंख में अब दयाभाव नहीं हैं आदि-इत्यादि. मैंने भी यह सवाल किए पर आज जब कुछ बातों पर गौर किया तो लगा कि ना दयाभाव मरा है और ना ही इंसानियत खत्म हुई है. यह बात मैं किसी का पक्षधर होकर नहीं कर रहा पर जब मैंने देखा कि हम किसी गाय के लिए रोटी का जुगाड़ कर देते है, गाय के लिए आंदोलन भी करते है तो फिर हमारा दयाभाव मरा कहां है. हां, पर किसी गरीब लाचार को रोटी देने से साफ मना कर देते हैं. गुटखा, सिगरेट के लिए तो खुल्ला करा लेते है, पर किसी अनाथ-बेसहारा को देना हो तो पॉकेट में बस ऐसे ही टटोलकर बोलते है कि यार छुट्टा नहीं है. और अभी तो हम नोटबंदी का सहारा लेने लगे है. पर वहीं पर गुमटी से एक बिस्कुट खरीदकर कुत्तों को शौक से खिलाते है, तो क्या यह इंसानियत नहीं है. कुत्तों को गोद में लेने से हिचकिचाते नहीं और अनाथ से दरकिनार होकर निकल लेते है. पर ऐसा भी नहीं है कि हम इंसानों से प्यार नहीं करते लेकिन उसका जगह बदल जाता है. देखिए कहां पर, जब कुत्ते गली में टॉयलेट करते हैं तो हम बस नजर हटाकर चल देते है या मार कर भगाते हैं, क्योकिं उनको देखने से आंख में घाव निकलता है ऐसा लोगों का मानना है. लेकिन रवैया हम इंसानों के साथ करते तो कितना अच्छा होता की कोई खुले में शौच नहीं करता, सरकार के करोड़ो बच जाते. पर हम तो जब खुले में शौच करने निकलते है तो मानवीय मल महक को सुंघते हुए उस प्रक्रीया में लग जाते है. सब गंदगी, ऊंच-नीच भूलकर शांति से दम निकालते है. कुत्ता-बिल्ली के रोने पर हम उनको मारते है यानि की एक प्रकार से चुप कराते है ताकि अशुभ घटना ना घटे पर पड़ोस में कोई रो रहा हो तो कान में हेडफोन डालकर सो जाते है. बिल्ली-सियार रास्ता काट दे तो थोड़ा रूकर निकलते है चाहे जितनी भी जल्दी क्यों ना हो, भले ही इसके पीछे अंधविश्वास की कहानी है पर सच तो यह है कि हमारी सुरक्षा के लिए ही है क्योकिं जानवर जब भी भागते है तो झुंड में या फिर उनके पीछे अन्य जानवर भी हो सकता है, तो रूक जाने का प्रथा प्रचलित हो गया ताकि एक्सीडेंट ना हो. पर कोई बुजुर्ग रास्ता पार करते वक्त बिच में आ गया तो बोलते है कि अबे मेरे ही गाड़ी से मरना है क्या कई बार तो धक्का मारकर चल भी देते हैं. हम इन जानवरों के लिए रूक सकते है तो फिर इंसान के लिए क्यूं नहीं रूक सकते. किसी को सड़क पार नहीं करा सकते पर किसी सड़क के पार जाने वाले को धक्का तो नहीं मारना चाहिए. किसी गिरे हुए को मत उठाओ पर पर उसकी नजर में तो मत गिरो. बेशक जानवरों से प्यार करो पर इंसान से तो दूरी मत बनाओ. किसी के अर्थी पर पैसा मत लूटाओ पर कंधा तो लगा दो. एक तरफ तो जानवरों से प्यार कर के हम अपनी इंसानियत को दिखा रहे हैं पर इंसान होकर इंसान से ही नजर छुपा रहे हैं. जानवरो के प्रति जागरूक होना हमारी मानवता का परिचय दे रहा है पर दुसरी ओर लाचार-बेसहारा लोगों को दरकिनार करना इंसानियत पर नहीं बल्कि हमारे मानसिकता पर प्रश्न उठा रहा है. अगर ऐसी मानसिकता बनी रही तो फिर एकदिन इन जानवरों से प्यार करने वाला इंसान ही मर जाएगा. एक फूल गुलजार नहीं करता है चमन को/पर एक भौंरा बदनाम कर देता है चमन को’. 

Monday 19 December 2016

एक और दानामांझी: सिंदूर तो दिया,अर्थी न दे पाया चंद्रमणी-


चंद्रमणी जोर और उसके बेटे लाश को बिन अर्थी श्मशान घाट ले जाते हुए।  पिक - नवभारत 

एक और दानामांझी: सिंदूर तो दिया,अर्थी न दे पाया चंद्रमणी-


गरीब को नहीं मिलता/डोली को कंधा/अर्थी कौन उठाता है/जहां मिलता नहीं फायदा/वहां पर मुंह भी नहीं खुलता है/सिंदूर की किमत कम ना होती/तो यह भी नसीब ना होता…’ दाना मांझी के दर्द की कहानी को अभे कोई भूला नहीं कि इस समाज ने एक और दीना को पत्नी की लाश ढोने को मजबूर कर दिया. यह कहानी बरगढ़ जिला में गुजारा कर रहे चंद्रमणी जोर की है, जो कि अपनी पत्नी के लिए अर्थी ना बना पाया तो कंधों पर ही लाश को शमशान घाट तक लाश बनकर ढोया. ना लकड़ी नसीब हो पाया और ना ही आग पर दो गज जमीन में दफना कर बीवी को अंतिम विदाई दे दिया. फूटकर रो भी ना पाया, अगर रोता तो फिर अंतिम संस्कार कौन करता. कौन पोंछता उसके आंसूओं को, कौन रोकता उसके दर्द के दरिया को? यह समाज, जिसने ना कंधा दिया, ना लकड़ी तो क्या ये उसके आंसुओं को पोंछते. शायद यह सब सोंचकर काठ बन गया था कलेजा उसका. वैसे इस समाज ने उसे कठ-करेज तो कहा ही होगा, पर कठ-करेज कौन है? बरगढ जिला, भेड़ेन ब्लॉक के उदेपुर गांव के लोग कठ-करेज ना होते तो कम से कम एक बांस तो अर्थी के लिए दे दिए होते. अरे, सौ-पचास ना सही बस कोई एक आकर भी तो कंधा दे दिया होता तो शायद आज फिर से ओड़िशा की इस धार्मिक धरती को यह दानवता का घूंट नहीं पीना पड़ता. अच्छा हुआ कि चंद्रमणी के चार कंधे पहले से तैयार हैं. अच्छा हुआ कि ऐसे समय पर उसके तीन बेटे साथ दिए. हालाकि चंद्रमणी जोर जयघंट गांव, संबलपुर जिला का मूल निवासी है पर वह अपने परिवार का गुजारा कराने के लिए उदेपुर में सारमंगला पूजा करने गया था. इस पूजा से मिले दान-दक्षिणा से गुजारा होता है. इसके गरीबी ने यह पहली दफा दर्द नहीं दिया है, इससे पहले बीमार दो बेटी को भी ना बचा पाया और पत्नी हेमबती को भी बीमार ही मरने दिया. क्या करता यह गरीब क्योंकि ओड़िशा के स्वास्थ्य विभाग और आर्थिक स्थिति के बारे में तो हम जानते ही है. इतना ही नहीं यह गुजारा भी कर रहा है तो पेड़ के नीचे. वाह रे हमारा समाज हमें तो कंबल ब्रांडेड चाहिए, घर डेकोरेटेड चाहिए पर हम उनको क्यों नहीं कुछ देते जिनके पास कुछ हैं ही नही. लेकिन चंद्रभूषण ने साबित कर दिया की अब दुनिया मांझी-चमार-दुषाद से नहीं बल्कि गरीबी के दाग से नफरत करने लगी है. वरना इस घर-घर के पुजारी से क्या घृणा थी जो कि एक कंधा और एक बांस तक ना दे सका हमारा यह सामाज. इसी बात को सोंचकर चंद्रमणी भी कठ-करेज बन गया कि अपनी जीवनी संगिनी के अंतिम विदाई पर ना अर्थी दे पाया और ना आग. पर समाज का यह रूप देखकर आग उसके मन में तो जल ही रहा हैं. एक दिन उसे भी तो इसी आग में जल जाना है क्योंकि वह कोई नेता,एक्टर,मुखिया,सरपंच थोड़े ही है जो कि उसको कफन और अर्थी नसीब होगा.

Sunday 18 December 2016

कैशलेश होने में नुकसान क्या है!


कैशलेश होने में नुकसान क्या है!

भले ही किसी टीवी डीबेट का मुद्दा नेशन वांट्स नोट हो पर खबर तो यह है कि अब जेब में पैसा ढ़ोने की कोई जरूरत नहीं है, पॉकेटमारों की छुट्टी. भारत अब कैशलेश हो कर भी धनी बनेगा, सोने की चिड़िया बनने की तैयारी. अब ऑनलाइन पेमेंट करना है, घपलाबाजी खत्म. सरकार से लेकर मीडिया बाजार तक सब के सब यही रट लगाए है, कैशलेश भारत सही तो कोई कह रहा बीजेपी की चाल. जिस फेसबुक और ट्वीटर पर एक-दूजे पर आरोप-प्रत्यारोप का बहस चलता था, अब वहां पर भी नोटबंदी का चर्चा चल रहा है. पहली बार ऐसा लगा की लोगों को देश की चिंता है पर यह सोंच गलत है क्योंकी लोगों को देश की चिंता नहीं जेब और पैसे की चिंता है. तभी तो सब के सब अपने-अपने धन को बचाने में लगे है, चाहे वह दस हजार वाला हो या फिर दस करोड़ वाला नागरिक. बाप बड़ा न भैया, सबसे बड़ा रुपय्या तो सुना था पर आज सबने देख लिया. और आज पैसे के कारण ही संसद को बंद कर दिया गया. लेकिन क्या ऐसा करना देशहित में है. कैशलेश को गलत बतलाकर खुद को बेहतर कहने वाले कालाधन छुपाना तो नहीं चाहते हैंनहीं तो फिर कैशलेश होने में क्या दिक्कत है. इस ऑनलाइन लेन-देन से घुसखोरी, चोरी या साफ शब्दों में कहे तो भ्रष्टाचार खत्म हो जाएगा. आप सब नेता गण तो भ्रष्टाचारमुक्त भारत चाहते है पर ऑनलाइन लेन-देन से डर क्यूं रहें हैं. इस कैसलेश के कारण अब गरीब और विधवाओं का पेंशन से मुखिया-सरपंच कमीश्न नहीं खाएंगे. कॉग्रेस को तो पक्ष में आना चाहिए क्योंकि इंदिरा आवास, मनरेगा जैसे मजदूर की कमाई पर कोई बिचौलिया हाथ नहीं फेरेगा. और भी बहुत फायदे हैं इसके. सबसे बड़ा फायदा तो यह दिख रहा है कि हरदिन करोड़ो कालाधन रखने वाले पकड़े जा रहे है जिसके कारण देश की आर्थिक स्थिति मजबूत हो रही है. फिर आप बताइए क्या देश को फिर से धनी नहीं बनाना चाहिए? गरीबों का पैसा बिचौलियो को खाने देना चाहिए? कल तक तो आप सब देश को सोने की चिड़िया बनाने पर लगे थे, गरीबों के हक के लिए मरने तक को तैयार थे और अपने चुनाव रैली में घंटों खड़े हो जाते हैं फिर इस सकारात्मक काम के लिए क्यों पैर को पीछे खिंच कर रहे हैं. कहीं डर तो नहीं रहें हैं कि अब नोट के बदले वोट नहीं मिल पाएगाअरे, हां अब इस कैशलेश के कारण तो चुनाव भी साफ-सुथरा होना तय है. तो फिर आप अपने छवि के दम पर वोट लिजिए ना. अब गरीब लोगों का हवाला देकर कि, उनको नेट चलाने नहीं आएगा, नेटवर्क प्रॉबलम है, स्मार्ट फोन नहीं खरीद पाएंगे अगेरा-वगेरा...बात कर रहे हैं. पर आज के दौर में लगभग हर घर में युवा लड़का-लड़की है, जिनके पास मोबाइल है. जो बहुत गरीब है उसके पास भी किपेड यानि बटन वाला फोन है.जिसके माध्यम आसानी से हम ऑनलाइन पैसा भेज सकते है. कोई बड़ा देशभक्त बनकर फेसबुक पर लिखा कि पेटीएम इत्यादि के द्वारा विदेशी कंपनीयों को फायदा होगा तो हमें इसका विरोध करना चाहिए. पर विरोध के आग में वे भूल रहे हैं कि फेसबुक, व्हाट्सएप भारत का बना हुआ थोड़े ही है, जिसका उपयोग बेझिझक कर रहे हैं. दुसरी बात यह है कि जब आप व्हाट्सएप्प और फेसबुक चला रहे हैं, तो फिर इंटरनेट के माध्यम से बैंकिग और खरीददारी करने में क्यूं हिचकिचा रहें हैं. चैटींग,पोस्ट,ट्वीट करने में तो बड़ा मजा आ रहा है फिर निष्पक्ष तौर से लेन-देन करने का भी आनंद लिजिए, साहब.

Friday 22 April 2016

कल्याणकारी अर्थव्यवस्था व अधिकार और अम्बेडकर-


कल्याणकारी अर्थव्यवस्था व अधिकार , दो मुख्य शब्द हैं और सरल शब्दों में कल्याणकारी अर्थव्यवस्था की परिभाषा हैं - यह अर्थशास्त्र की सूक्ष्म इकाई हैं , जो की पूर्णरूप से समाज के हित के लिए प्रयोग में लाई जाती हैं और इसका मुख्य उद्देश्य हैं आर्थिक - स्तर के साथ समाजिक विकास करना और दूसरी तरफ अधिकार का शाब्दिक अर्थ हैं - सामाजिक हक़। अधिकार के बिना कल्याण की बात करने का मतलब हैं , जनता को अपने मूल हक़ से वंचित कर देना इसलिए सामाजिक उध्दार में अधिकारों का होना अतिआवश्यक हैं।  डॉ. अम्बेडकर  विचारों पर गौर करे तो इनका विषय के साथ पारस्परिक सम्बन्ध निष्पक्ष दिखाई देता हैं और सन 1949 में भारत के नियंत्रक - महालेखा के समक्ष प्रस्तुत  उनका  यह कथन " आप निवेश कीजिये और नियम - कानून भी लगाईये परन्तु यह मत भूलिए की उसका सीधा सम्बन्ध लोगो के जरूरतों के साथ होना चाहिए। "  इस बात की पुष्टि भी  करता हैं। कल्याणकारी समाज निर्माण में डॉ. अम्बेडकर का समाज के साथ सम्बन्ध बड़ा पुराना हैं और जैसे - जैसे हम आगे की ओर  बढ़ेंगे  , वैसे - वैसे इनके कामों से हमारे सम्बन्ध भी प्रगाढ़ होते जायेगा।
जन्म - जीवन :- " कोयले की खान से हीरा और कीचङ में कमल " का निकलना जनमानस ने देखा है लेकिन हिंदूओं के जातिगत दलदल से कोई कोहनूर निकलेगा, उस दौरान यह कल्पना करना भी मानवीय सोच से परे था ।सदीयों से वीर - पुरुषो की जन्मभूमि रही भारत ने 14 अप्रैल सन् 1891 को महू  (म .प्र .) की धरती पर अंग्रेजी सेना सूबेदार रामजीराव (पिता) व माता भीमा बाई के चौंदहवे संतान के रूप में डॉ.भीमराव अम्बेडकर  जन्म लिए लेकीन मूलरूप से गांव आम्बवेद , रत्नागिरी ,महाराष्ट्र के निवासी थे ।भीमराव के कुशलता से प्रभावित होकर उनके ब्राह्मण शिक्षक ने  इनके नाम के साथ अम्बेडकर जोङ दिया ।यह महार जाति के थे जिनको शूद्र ( अछूत ) माना जाता था और यह हिन्दू धर्म के चौथे पायदान थे ।हिन्दूओं के जातीय रोग को दूर करने के लिए अंतिम में बौद्ध धर्म को स्वीकार कर समाज के लिए प्रगतिशील प्रेरक बने और इसके बाद जात - पात की बंधक रूपी  दुनिया से लोग धीरे - धीरे स्वतंत्र होने लगे ।
शैक्षणिक जीवन काल: - ऐसा  कोई भारतीय और गैर - भारतीय नहीं होगा कि जो इस आधुनिक भारत के पिता के शिक्षा से अवगत  ना हो ।क्योंकि इनके शोध कार्य आज के समय में हमारे लिए किसी ऐतिहासिक धरोहर से कम नहीं ।इनकी शैक्षणिक कामयाबी का सफर सन् 1896 में इनके ही गांव के प्राथमिक विद्यालय, दापोली से शुरु हुआ और सन् 1913 में बम्बई विश्वविद्यालय से स्नातक की डिग्री हासिल किए ।अछूत होने के वजह से कक्षा में सबसे पीछे बैठने के बाद भी अपनी कुशल व एकाग्रचित स्वभाव के कारण हमेशा अव्वल स्थान हासिल किए और आज के समाज में इसका प्रभाव पङा, तभी तो आगे - पीछे बेंच पर बैठने की अवधारणा छोङ कर हम बस अपने लक्ष्य के लिए पढ रहे है ।इनकी कुशलता को ऊँचाई देने के लिए बङोदा नरेश ने तीन साल के लिए छात्रवृति प्रदान की और उच्च - शिक्षा के लिए अम्बेडकर विदेश चल पङे । 10 जून सन् 1916 को कोलंबिया विश्वविद्यालय ने अम्बेडकर को अर्थशास्त्र के क्षेत्र में डॉक्टरेट की उपाधि से सम्मानित किया और फिर वे डॉ.  भीमराव अम्बेडकर बन गए । सन् 1923 में डॉक्टर इन साइंस और सन् 1927 में अर्थशास्त्र के क्षेत्र में डॉक्टरेट की ख्याति से लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स ने उनको सम्मानित किया और इतना ही नहीं उनके शोध कार्यो को गहनता से पढे तो वह खुद ही एक विशेष विषय की तरह है ।
             बचपन से ही वे समाज की कुप्रथा  जूझे और सन् 1906 में बचपन में उनकी शादी रमाबाई से हुई और छः साल बाद पिता भी बन गए । मजबूरीयों के बावजूद भी अपने लक्ष्य के प्रति संघर्षशील रहे क्योंकि उनके पिता ने कहा था कि " अम्बेडकर यदि समाज में समानता चाहते हो तो तुम्हें उच्च शिक्षा ग्रहण करना चाहिए । " इनके बचपन के जीवन पर गौर तो  हमे कुण्ठित भीङ से अलग एक नई दिशा देने वाले अम्बेडकर साहब दिखाई देंगे जो आज भी मार्गदर्शन कर रहे है ।
समाजिक उत्थान में अम्बेडकर :- बाबा साहेब के शैक्षणिक शोधों व राजनीतिक जीवन पर गहनता व दूरदर्शिता के साथ देखने पर उनके सम्पूर्णं कार्यकाल का सम्बन्ध कल्याणकारी अर्थव्यवस्था व सामाजिक हक़ के साथ दूध जैसा साफ दिखता है, लेकिन ग्वाला के नजर से आकलन करने लगे तो, आज के नवीनतम कामो में डॉ. अम्बेडकर के कल्याणकारी विचारों के मिश्रण को छुपा दिया जाता है क्योंकि इतिहास बताता है कि किसी ग्वाला ने दूध में पानी मिलाने की बात को स्वीकार नहीं किया है ।लेकिन डॉ.अम्बेडकर ने जो इतिहास के पन्ने पर लिख दिया है, वो अमिट है ।तो आइए  पैनी व विश्लेषित नजर डालते है, इनके अमिट - समाजिक कार्यों पर जो कि निम्नलिखित है -
01- शैक्षणिक शोध कार्य - 
डॉ. अम्बेडकर पहले भारतीय थे जिनको विदेश में अर्थशास्त्र के क्षेत्र में डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त हुई ।जब उन्होंने अर्थशास्त्र में एक शोधपत्र लिखा " भारत का आर्थिक इतिहास 1765 से आजतक " तो उनके अर्थकारी आंदोलन को देखते हुए प्रोफेसर शेलीगमन ने कहा " सच में तुम्हारी लङाई लाजपत राय के 'होम रुल लीग ' से बहुत ही मुश्किल लेकिन फलदायक है ।"  एक और उनके प्रभावकारी शोध " रुपये की समस्या " के आधार पर 01 अप्रैल सन् 1935, को भारतीय रिजर्व बैंक की स्थापना हुई और यह भारत के आर्थिक  उत्थान के लिए सफल सिध्द हुई और इसके साथ ही डॉ. अम्बेडकर सफल अनुभवी साबित हुए । इतना ही नहीं " भारत का राष्ट्रीय लाभ " यह शोध भी समाज के हित में रहा और राष्ट्रीयकरण योजनाओं के बारे में उनकी सिध्दकारी बातें निम्न है -
-- उद्योग का राष्ट्रीयकरण
-- बैंक का राष्ट्रीयकरण
-- जीवन बीमा का राष्ट्रीयकरण

              राष्ट्रीयकरण योजनाओं के पहले उन्होंने कहा था कि "राज्य को अपने आय के अनुसार ही निवेश करना चाहिए " । लेकिन यह बात उस समय समझ में आई, जब भारत ने अपना साठ टन सोना गिरवी रखा । ठिक इसी तरह हम उस समय तो राष्ट्रीयकरण नहीं किए और आज एक दशक के बाद इनके विचारों के साथ काम कर रहे है । आज के समय में हमारे यहाँ सरकार व गैरसरकारी उद्योग, जीवन बीमा पॉलिसी, बैंक राष्ट्रीय स्तर पर पहुंच कर देश को आर्थिक रूप से मजबूत कर रहे है और साथ ही साथ रोजगार के अवसर बढ रहे है ।अगर बीसवीं सदी के महानायक अम्बेडकर के विचारों साथ हम चले होते तो आज हमें अपने देश के विकास के जागरूकता के लिए अमेरिका, जापान जैसे विकसित देशों के उदाहरण देने की जरुरत ना पङती ।देर सही पर मौजूदा समय पर प्रधानमंत्री जन - धन योजना, जीवन बीमा और अटल पेंशन योजना और अन्य कल्याणकारी योजना भी किसी ना किसी रूप से इनके विचारों से जुङी है और आज गरीबों का अधिकारिक  उध्दार हो रहा है ।
02-कृषि क्षेत्र में अम्बेडकर :- ' भारत कृषि प्रधान देश है और यहाँ का किसान देश का बेटा है ।' ऐसी प्रभावकारी मोहनी बातें इतिहास के साथ पढने व सुनने को मिला है लेकिन 
डॉ. अम्बेडकर ने कृषि की विफलता को लेकर एक पुस्तक " भारत में अल्पभूमि व उनके उपाय " और कृषि कल्याण के लिए निम्न तथ्य व्यक्त किए :-
भूमि सुधार एजेंडा :- उन्होंने कहा कि हमारे अधिकांशत जमीने जमींदारों व बंधको के अधीन है और यह एक प्रथा बन चुकी है । फिर उन्होंने अपनी पुस्तक " राज्य और अल्पसंख्यक " में उल्लेख किया कि " बिना भेदभाव के भूमिहीनों को पट्टे पर जमीन दी जानी चाहिये "।
सामूहिक खेती :- उन्होंने कहा कि भारत के खेत कई टुकङे में बँटे है जिसके कारण हम सही ढंग से खेती नहीं कर सकते है ।जब हम फार्म के पैमाने पर खेती करेंगे तो हम अपनी उत्पादन क्षमता बढा सकते है ।
आधुनिक कृषि पद्धति :- हमारे पास जमीन तो सीमित है और इनको बढाना भी असम्भव है ।लेकिन आधुनिक कृषि - यंत्र, उच्च नस्ली  बीज व रासायनिक खाद के साथ अन्न की उत्पादन क्षमता को बढा कर कृषि पर निर्भर हो सकते है ।
             इनकी बातों का असर आजादी के कुछ साल बाद दिखा और सरकार ने कृषि  वित्तीय सहायता उपलब्ध कराया व भूमिहीनों को पट्टे पर जमीन देकर जमींदारी - प्रथा पर काबू पाया गया ।जमींदारों के वजह से समाज में एक अलग तरह का बटँवारा हो गया था , जिसके कारण समाज में असमानता व्याप्त थी और पिछङे लोगो के साथ - साथ समाज का विकास रथ रूका था लेकिन जैसें ही सरकार ने ठोस कदम उठाए लोगो को उनका जमीनी हक दिलाने और अन्न की उत्पादकता को बढाने में राज्य के प्रति लोगो की आस्था बढी और सरकार व अम्बेडकर के विचारों का समावेश के साथ ही समाज विकास - रथ पर सवार होकर अपने अधिकार के साथ गतिमान हुआ । आधुनिक कृषि का मूलमंत्र देकर समाज का कल्याण के कार्य जारी  है ।
03-राजनैतिक - समाजिक कार्य: - एक आदर्शवादी समाजिक नेता की तरह डॉ. अम्बेडकर  अपने आंदोलन का नेतृत्व करते थे और राजनीति में उनकी आस्था भी थी । सन् 1936 में जब वे " स्वतंत्र मजदूर दल " की गठन के बाद बम्बई विधान सभा चुनाव में पन्द्रह सीट जीत कर यह साबित कर दिये कि वह कुशल नेता है ।आज के भारत में भी इसी तरह के मजदूर संघ , महिला मोर्चा, छात्र दल इत्यादि तरह के राजनीतिक संगठन अपने अधिकार व सामाजिक रक्षा के लिए कार्यरत है ।नासिक आंदोलन के दौरान दलितों पर हींसात्मक हमले हुए लेकिन एक सभ्य राष्ट्रवादी नेता  का परिचय देते हुए कहा कि " कोई मुझे देशभक्त कहे या देशद्रोही  फिर भी मैं भारत के हितों के खिलाफ एक काम नहीं करुँगा ।" उन्होंने यह साबित किया कि शांति - आंदोलन ही समाज के पक्ष  में है , जो कि निम्नलिखित है :- 
समानता के लिए आंदोलन:- भारत जातिगत आधार पर कई टुकङो में खण्डित है  । 
डॉ. अम्बेडकर ने कहा कि " जब तक हमारा समाज जातिवाद के टुकङो में खण्डित है तब तक हम चाहे आधुनिक तकनीक लाए या यंत्र, विकास सम्भव नही है और समाजिक समानता के लिए छुआछूत की मनुस्मृति को भस्म कर के ही हम सुसंगठित रुप से संघर्षशील हो सकते है । " सन् 1928 में साइमन कमीशन के सामने भी मौलिक अधिकार के लिए आवाज उठाई और  उन्होंने कहा कि " समाज सार्वजनिक क्षेत्र है और यहाँ पर सबका समान हक है ।"
              भले ही समाजिक समानता व स्वतंत्रता के आने में देर लगी लेकिन उनका  यह आंदोलन प्रभावशाली सिध्द हुआ और आज के समाज में इसका प्रमाण हमें मौलिक अधिकार के रूप में मिला है ।अगर यह आंदोलन फलदायक नहीं होता तो हम अपनी स्वेच्छानुसार शिक्षा ग्रहण नही कर पाते, समाजिक बात कह नही पाते, अन्याय के खिलाफ आवाज नही उठा पाते और ना ही हम समाजिक तौर पर आजाद रहते तो ऐसे में हम विकास की दुनिया से अलग होते ।सूचना का अधिकार का श्रेय भी बाबा साहेब अम्बेडकर को ही जाता है ।अनुभव से देखने पर पता चलता है  की समाजिक समानता के बाद हमारे देश की विकास दर आगे की ओर बढता ही चला है । आज भी कुछ लोग सरकारी - तंत्र के कमी के कारण  जागरूकता के अभाव में अधिकारों से वंचित रह गए है, जो कि समाज के पक्ष में नहीं है । अधिकारों से वंचित लोगो के लिए 
डॉ. अम्बेडकर का एक और विचारणीय व अनुभवी कदम, निबंध के विषय को प्रकाशमय कर रहा हैं :-
पिछङे - वर्ग को आरक्षण :- पिछङे - वर्ग के लोगो के लिए 
डॉ. अम्बेडकर ने विशेषाधिकार देने की बात कही जिसे आज हम आरक्षण के रूप में देख रहे है ।आरक्षण एक प्रकार का प्रोत्साहन है, जो कि दबे तबके के लोगो को आत्मबल देता है ।आरक्षण की बात से उच्च वर्ग के लोगो के मन में नकारात्मक सवाल आए की यह कैसी समाजिक समानता है ? लेकिन जिस समानता के अधिकार की  बात हो रही थी, तो  उसके बीच में आर्थिक तंगी व शिक्षा के अभाव से एक विशाल गड्ढा बन गया था और उसका समतल करने का उपाय था कि पिछङे - वर्ग के लोगो को आर्थिक व सामाजिक सहायता प्रदान की जाए ताकि वे भी शिक्षित व आत्मनिर्भर बने और समाज वास्तविक रूप  से सुसंगठित , शिक्षित और संघर्षशील बने ।समय के साथ आरक्षण का सकारात्मक परिणाम आया और धीरे - धीरे पिछङा समाज शिक्षित बनकर अपनी योग्यता के अनुसार सरकारी और गैर - सरकारी संस्थानों में प्रवेश कर लिया और आश्चर्यजनक परिवर्तन देखने को मिला कि उच्च वर्ग के लोग , निम्न स्तर के लोगो से मिलने लगे । भारत की आधी से भी ज्यादा आबादी पिछङे - वर्ग की थी और संयोगवश वे सभी दलित थे और उनको छोङकर के विकास करना असंभव था । 
महिलाओं के लिए विशेषाधिकार :- पिछङे - वर्ग में केवल दलित नहीं बल्कि महिलाएँ भी शामिल थी । हालांकि भारतीय महिलाओं के शोषण के खिलाफ आंदोलन करने वाले 
डॉ. अम्बेडकर पहले भारतीय नहीं थे । इनसे पहले राजाराम मोहन राय सती प्रथा के खिलाफ आवाज उठा चूके थे ।लेकिन महिलाओं के समाजिक हक व समानता के लिए आंदोलन करने वाले  डॉ. अम्बेडकर वाले पहले भारतीय थे , जो कि महिला वर्ग का सर्वांगीण विकास चाहते थे ।चाहे उच्च स्तरीय जाति के पुरूष हो या  निम्न वर्ग के, वे महिलाओ से  समाज  में मजदूरी करवाते वक्त शर्म  नही महसूस करते थे ,  लेकिन उस समय की औरतों को समाज में समानता देने का मतलब पुरुष वर्ग का मर्यादा भंग करने  जैसा मानसिकता पाल रखे था । महिला वर्ग के संघर्ष को देखते हुए  बाबा साहेब अम्बेडकर ने पुरुषो को महिलाओं का महत्व समझाया और बिना नारी समुदाय के  समाज को आगे  नहीं  बढाया जा सकता है, यह  एक  सार्वभौमिक  सत्य है ।हमारे समाज में  नारीयों को इतना  शोषित कर दिया गया था कि उनके  मन  से  डर निकालना आसान  काम नहीं था, इसलिए अम्बेडकर साहब ने उनके मनोबल को बढाने के लिए उनको समाज में विशिष्ट अधिकार देने के  लिए , उन्होंने सन् 1928 में बम्बई विधान परिषद में महिला प्रसूति अधिनियम विधेयक पेश किए ताकि उनको गर्भवती होने के बाद आखिरी महीने से { प्रसव माह } छुट्टी मिले और मजदूरी भी दिया जाए और हिन्दू कोड बिल  भी मुख्य रूप से महिलाओं उत्थान के लिए था लेकिन हिंदूओं ने इसका विरोध किया और आखिरकार इक्कीसवीं सदी के भारत में संशोधन के बाद , इन नियम को किसी अन्य रूप  लागू  किया जा रहा हैं तो महिलाओं को भी समाजिक अधिकार मिलने लगे है ।आज हम महिला सशक्तिकरण को बढाने में लगे हुए है और समाज के हर क्षेत्र में महिलाएँ अपने अधिकार का प्रयोग कर के अपना पहचान बना रही है और आज समाज के निर्माण में अहम भूमिका निभा रही है । तो इस तरह हम कह सकते है कि उनके आरक्षण का मुख्य उद्देश्य दलितों के लिए नहीं बल्कि केवल समाज के शोषित वर्ग में समरूपता लाने के  लिए ही था ।
            आरक्षण ने हमारे देश को मूलरूप से एक नया आयाम दिया और जनता में सामाजिक भावना जागृत हो गई और साथ ही साथ आर्थिक रूप से भी हितकारी सिध्द हुई और आज भी सरकार दलितों के विकास के लिये अग्रणी है । इस तरह से 
डॉ. अम्बेडकर के विचारों ने समाज के कमजोर व्यवस्था को मजबूत बनाने के साथ ही अधिकार को भी सुरक्षित कर दिया ।
राजनीति में आम आदमी के लिए आरक्षण :- लोकतंत्र की नींव राजनिति के आधार पर खङी है और जनता के द्वारा चुने गए प्रतिनिधि ही लोकतंत्र का बागडोर संभालने के लिए कार्यरत रहते है, लेकिन डॉ.अम्बेडकर ने कहा कि "राजनीति में जब तक आम आदमी के लिये कुछ निर्वाचन क्षेत्र  आरक्षित नहीं होंगे तब तक दबे हुए वर्ग का राजनीतिक विकास नहीं हो सकता ।" ऐसा  विचार राष्ट्र के प्रति संघर्षशील सोंच को बयाँ करता है और केवल मताधिकार से लोकतंत्र का विकास करने का  मतलब यानी कि एक लोकतंत्रात्मक राजतंत्र का निर्माण । क्योंकि लोकतंत्र की सीट पर तो फिर केवल किसी एक वर्ग का आधिपत्य हो जाएगा और आम जनता बस मतदान करने के लिए ही रह जाएगी ।  सन् 1932 में 
डॉ. अम्बेडकर के नेतृत्व में पूना समझौता  हुआ जो कि मुख्यतः दलितों के आरक्षित निर्वाचन क्षेत्र के लिए था लेकिन गांधी जी ने इसका विरोध किया और आमरण भूख हङताल पर बैठे और आखिरकार डॉ. अम्बेडकर मजबूरवश पीछे हो गए, लेकिन आधुनिक भारत में इसका परिणाम हमें लोकतंत्र के पक्ष में देखने को मिला और आज की राजनीति में महिलाओं के साथ - साथ निम्न वर्ग के लोग भी शामिल है । आज भी जातिगत आधार पर मतदान तो होता है, परन्तु किसी खास वर्ग का जो एकाधिकार था, वो अब खत्म हो रहा है । अब आम लोग अपने अधिकार का प्रयोग कर के अपना व समाज का कल्याणकारी निर्माण कर रहे है और यह डॉ. अम्बेडकर की असाधारण सफल अनुभवी विचार का परिणाम है ।
निष्कर्ष :- डॉ.  भीमराव अम्बेडकर के विचारों को लागू करने में हम तो एक दशक लगा दिये  तो फिर शब्द सीमा के अंदर उनके पूरे कल्याणकारी अर्थव्यवस्था के विचारों को व्यक्त करना संभव नहीं है लेकिन मैंने उनके  बचपन से लेकर आंदोलनकारी जीवन को पढा तो यह प्रतीत हुआ कि उनका तो सम्पूर्ण  जीवन ही समाजिक उत्थान के लिए कार्यरत था या यूं कहे कि जितना जीयें नहीं उससे कई गुना ज्यादा राष्ट्र- समाज के विकास के लिए संघर्ष किये ।चाहे उनके शैक्षणिक - शोध , राजनीतिक आंदोलन और लेखनी की बात करे तो उन सबका सम्बन्ध किसी न किसी रूप में समाज के आर्थिक व  सामाजिक विकास के लिए जुङा  हुआ  है , साथ ही साथ आम जनता का विशिष्ट ख्याल भी रखा  उन्होंने । डॉ. भीमराव अम्बेडकर एक अर्थकारी क्रांति के प्रतीक है और आने वाले समय में भी उनकी विचारधारा , और भी ज्यादा प्रभावित करेंगी ।भारतीय  समाज आज आधुनिक युग में उनकी सिध्दकारी संघर्ष के बदौलत ही है । जिस सोंच के साथ वो देश का चौतरफा विकास चाहते थे, वैसी कल्याणकारी विचारों को व्यक्त करने के लिए उपयुक्त शब्द तो नहीं है लेकिन इतना तो अनुभव के आधार पर कह सकता हूँ कि हम अपने घरेलू समस्या से निपट नहीं पाते है परन्तु बाबा साहेब अम्बेडकर ने समाजिक समानता  के लिए एक ज्योतिर्मय परिवर्तन की आग जलाई , जिसमें असमाजिक तत्व जल रहे है और जरूरतमंद व शोषित वर्ग उस अधिकार रूपी प्रकाश से खुद का समाजिक जन - जीवन स्वतंत्रता से जी रहे है । डॉ. अम्बेडकर ने अपने अनुभवी अध्ययन के मुताबिक वो सारी बातें बताई जिससे कि एक स्वस्थ व सुसंगठित समाज का निर्माण किया जा सके और आज हम अपने आधुनिकीकरण के कामयाबी को देखते हुए यह तो निस्संदेह कह सकते है कि उनकी सोंच गहनता के साथ अनंत काल तक की सोंच है, जो कि केवल अतिविशिष्ट मानव में ही पाई जाती है ।जिस तरह से डॉ. अम्बेडकर अपने अनुभव से आगे निकल गए और हमारे लिए भी पथप्रदर्शक बने है तो अगर आज के छात्र जीवन को अनुभव के आधार पर बयाँ करे तो देखेंगे कि हम मजबूरीयों के वजह से पढाई छोङ देते है और  मौत के डर से समाजिक आंदोलन लेकिन बाबा साहेब ने तो मजबूरीयों को ही संसाधन बना कर शिक्षा भी ग्रहण कर लिये और अकेले लङकर हमें  नया समाज दिये ।
आधुनिक भारत के पिता 
डॉक्टर भीमराव अम्बेडकर के जीवन को कुण्ठित मानसिकता से अलग कर के देखा जाए तो इनका पूर्णं जीवन ही समाजिक कल्याण के लिए पूर्णंरुप से समर्पित दिखता है । इनसे बेहतर कोई  भारतीय नहीं है, जो कि आर्थिक - तंगी व अधिकारों से वंचित हो कर भी समाज के  आर्थिक व सामाजिक विकास के लिए अविराम संघर्ष किया हो ।डॉक्टर अम्बेडकर ने हमे समाजिक असमानता  के कुँआ से बाहर निकालने के लिए समानता व स्वतंत्रता की सीढीयों के साथ अर्थव्यवस्था की कुँजी देकर हमारे सार्वजनिक इच्छाओं को पूरा किये  और एक सच यह भी है कि समाजिक  - समानता के साथ आर्थिक विकास भी होना  चाहिए नहीं तो हमारी आर्थिक मजबूरी हमें फिर से गुलाम बना लेगी तो ऐसे में समाजिक - समानता व अधिकारों का कोई मोल नहीं रह जाएगा । भारत को शैक्षणिक , राजनीतिक,  आर्थिक और सामाजिक रूप से सुसंगठित बनाने के लिए डॉ. अम्बेडकर ने  हमारे समाज को एक समतल भूमि की तरह तैयार किया ,जिस पर आज हम सब अपने अधिकार के साथ खङे है ।भारतीय जन - समूह के आर्थिक व सामाजिक विकास के लिए अंदर अपने  विचार व मत को निश्चित रूप से अधिकार के तहत लागू करने के लिए उन्होंने अपने वास्तविक अनुभव के आधार पर शोध किया और समाज के भिन्न - भिन्न पहलुओं पर अपना शोधात्मक व्यक्तव्य प्रस्तुत किया और इनकी बातों से केवल भारतीय ही नहीं बल्कि विदेशी भी प्रभावित हुए क्योंकि  इन्होंने आकर्षक व बनावटी बातों को दरकिनार करके हमारे समाज के विफलता  के कारण पर जोर दिया और साथ ही साथ उनके सुधार के लिए भी शोधकार्य के साथ तर्क दिया ।भारत को वास्तविक तौर पर आधुनिक बनाने के लिए हमें इनकी तरह दूरगामी सोंच के साथ इनके द्वारा दिए अधिकारों का दायित्व से उपयोग करना चाहिए और बाबा साहेब अम्बेडकर ने तो  हमारे लिए कल्याणकारी अर्थव्यवस्था के समाज को सुचारू रूप से संचालित करने के लिए जिन अधिकारों को सुनिश्चित किये है, तो समाज के  पक्ष में हमें भी निष्पक्ष व निष्ठावान ही रहना चाहिए ताकि हमारा समाज औरों के लिए भी पथप्रदर्शक सिध्द हो और आधुनिक भारत के पिता डॉक्टर भीमराव अम्बेडकर को सच्चे मन से श्रध्दा - सुमन अर्पित करते रहे । ऐसे असाधारण महानायक के लिए समर्पित मेरी कविता " नव भारत का विधाता वो " की चंद पंक्तियाँ –

“सोंच से ही बदल  दिया, गाँधी जैसो की गाथा वो,
आमरण  जोङा रहा, दबे - तबको से नाता वो,
संविधान से दे गया, अधिकारों का ताँता वो, 
अम्बेडकर नहीं, हैं युगम्बर, नवभारत का विधाता वो । ।”

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Monday 28 March 2016

निर्भया अभी जिंदा है. लूटने या इन्साफ के लिये !

PC- mynews-vipan.blogspot.com
दिल्ली की दिसम्बर ठण्ड से भरी रहती है, कोई ठंड से तो कोई काम से सो नही पाता है. वैसे भी दिल्ली में भाग दौड के बिना रोटी का मिलना मुश्किल है. लेकिन इस भीड़ भाड़ की दिल्ली में भी कोई लड़की सुरक्षित नहीं हैं, ना घर में ना रोड पर .                                             12 दिसंबर 2012, की रात को भला कौन भूल सकता है. खैर आपने व्यस्तता के कारण भूला दिया होगा लेकिन निर्भया की मां कैसे भूल सकती है, वह कलमुहा दिन. क्योंकि बेटा बेटी को खोना दुर्भाग्य होता है लेकिन अपनी बेटी को बलात्कार का शिकार होते देखना, क्या इससे बडा भी दुर्भाग्यपूर्णं कुछ होगा किसी भी मां बाप के लिये. निर्भया की मां ने कभी भी नही सोचा होगा की 23 साल से सिंच संजो कर रखी बेटी को इस तरह विदाई देना पडेगा. उसकी मां ने तो एक एक दिन जोडा होगा की अब मेरी बेटी आयेगी डीग्री, जॉब लेकर और इसी ख्वाब के साथ तो हर किसी के माता पिता जिंदा रहते है. लेकिन 04 साल से ऐसा ख्वाब नही आया और ना ही आयेगा, निर्भया की मां को. निर्भया कोई पहली लडकी नही है जिसके साथ सामूहिक बलात्कार हुआ क्योंकी इससे पहले भी लगभग 66 बलात्कार प्रतिदिन हुये थे और निर्भया के केस के बाद 90 बलात्कार प्रतिदिन हो ही रहे है. एक प्रकार से देखा जाये तो निर्भया के केस के बाद हम एकजुट व जागरुक दिखे लेकिन नेशनल क्राइम रिकॉर्डस ब्यूरो ने जब शोध कर के आंकडा दिया की निर्भया के केस के बाद बलात्कार दोगुना बढ गया है. यानि की हर 14 मिनट पर कोई निर्भया तो कोई दामिनी लुटी जा रही है, दम तोड रही है. लेकिन जिस दिल्ली में हम इसका विरोध किये वही दिल्ली इस क्राइम के क्षेत्र में पहले स्थान पर है. जन आंदोलन कर के हम लोगों ने विरोध किया और अपराधियों को गिरफ्तार भी करवाया लेकिन आंकडे तो कह रहे है कि हम आज भी खामोश है. निर्भया का केस एक आधार बन गया रेप क्राइम एजेंसी, मीडिया व आंदोलन करने वालों के लिये लेकिन बलात्कार तो अपने रफ्तार से बढता ही जा रहा है. हम कहीं ना कहीं सिर्फ अपने कार्य क्षेत्र व दायित्व के दायरे में सिमट कर रह गये है और समाजिक कर्तव्य को भूला बैठे है. अगर हमें इस बात का ख्याल रहता की निर्भया, दामिनी मेरी अपनी है तो फिर बलात्कार कम होते और अगर रेप होते भी तो हम उन बलत्कारियों को सजा देने के लिए त्वरित फैसला लेते और सब के लिए समान सजा होना चाहिये. क्यूँकि अगर कोई बच्चा होकर यह जान सकता है कि सेक्स कैसे करते है और यही मौका है रेप करने का तो फिर क्या वह बच्चा है. यह कैसा बच्चा है जो व्यस्कों का काम निडर हाेकर करता है. बलात्कार तो बस बलात्कार ही हैं, तो फिर उनको बचाना क्यों, एेसे में बलात्कारी का मनोबल बढेगा ही बढेगा. अन्य चीजों से तो बचने का अवसर भी है लेकिन विश्वास के आड में होने वाले बलात्कार से नारी कैसे बचेगी. अब नारी किससे - किससे बचेगी क्योंकि उसको नोचने वाला बाप, भाई, शिक्षक और अजनबी सब मौके के आड में बैठे है. ऐसे में नारीयों को खुद के ऊपर भरोसा कर के चलना ही बेहतर है, क्योंकि इस लचर व्यवस्था को बेहतर होते - होते तो जाने कितनी निर्भया शिकार हो जाएँगी और नारीयों को मुद्दा बना कर उपभोग होता रहेगा. जाने कितनी निर्भया निर्भय हो कर तमाम क्षेत्र में जज्बें के साथ काम कर रही हैं फिर भी किसी कोने में कोई दामिनी, सूर्यनेल्ली और निर्भया जिन्दा हैं, इंसाफ के इंतजार में या लूटने के लिए, यह बता पाना मुश्किल हैं. 

Sunday 27 March 2016

हिंदी भाषा पर विवाद नहीं कार्य होने चाहिये-


एक पुरानी कहावत के अनुसार भारत में डेढ कोस पर पानी और वाणी बदलते है. यानी की यहां पर हर समुदाय का अपना अपना क्षेत्रीय भाषा है. ज्यादातर ताे आदिवासी बाहुल्य क्षेत्रों में हमें अलग अलग तरह की भाषाएं मिलती है. इसके साथ साथ अन्य तरह की भी विभिन्नता पायी जाती है. तभी तो अखण्ता व विभिन्नताओं के लिये हमारा देश विश्व प्रसिध्द है और इन्ही परिवर्तनों को देखने व अध्ययन के हेतु विदेशी यहां भ्रमण करते है. क्योंकी इतनी विभिन्नताओं के बावजूद भी एकता का होना अन्य देशों के लिये चर्चा व शोध का केंद्र है. लेकिन कुछ सालों से हम भाषा के लिये आपस में विवाद शुरू कर दिये है. परंतु हम यह भलिभांति जान नही पा रहे है की क्या इस तरह से भाषा का   विकास संभव है. वाकई में यह भाषा है क्या? वैसे तो यह कोई छोटा विषय वस्तु नहीं है लेकिन यदि सीधी सपाट शब्दों में बोले तो भाषा संचार या वार्तालाप का माध्यम मात्र है, जिसके द्वारा हम अपनी अभिव्यक्ति , विचार व सलाह को शब्दों के माध्यम से व्यक्त करते है. भाषा सफलता की सीढी है क्योंकी ज्यों ज्याें भाषा विकास के ओर बढा है, त्यों त्यों मानव सभ्यता का विकास हुआ है. भाषा के महत्व और मतलब को समझना है तो किसा गूंगे व्यक्ति से बात कर लिजिये और जरा कल्पना किजिये की जब भाषा नही होंगी तब कितना दिक्कत हाेता होगा, अपने बातों को जाहिर करने के लिये. या हम यूं कहे की भाषा के बिना इंसान गूंगा है. 


आधुनिक काल में भाषा का बढता क्षेत्र- 

आज के दौर में भाषा का क्षेत्र व्यापक रूप से तेजी से बढ रहा है क्योंकी अब तक के विकास मॉडल पर नजर डाले तो हमें पता चलता है कि वास्तव में भाषा कितनी महत्वपूर्णं है. दुसरी तरफ लगभग सारे विश्वविद्यालयों में अन्य देशों की भाषा की पढाई को चालु कर दिया गया है. लेकिन विश्व को प्रथम विश्वविद्यालय और सबसे पुरानी भाषा संस्कृत (भाषाओं की माँ) देने वाला भारत अपनी भाषा का अस्तित्व खोते जा रहा हैं। 

भाषा और विकास का संबंध-
हम जब भी विकास की बात करते है तो अन्य विकसित देशों का उदाहरण देते है लेकिन हम यह गौर ही नही करते है की वाकई में उनके विकास का राज क्या है. हम जापान, चीन या अंग्रेजी भाषी देशों की बात करते है लेकिन यह कैसे भूल जाते है कि इन देशों ने विकसित होने के लिये अपने क्षेत्रिय भाषा को मजबूत किया है. क्योंकी विकास के लिये आम लाेगों का साथ व सहयोग बहुत जरूरी है. आम लोगों को विकास प्लान तो तभी समझ में आएगी की जब सारी जानकारी उनके अपने भाषा में होगी और तभी उनका सहयोग भी मिलेगा. विकास मॉडल तो हम पढते है लेकिन उसके बाधा पर बस एक ऊपरी नजर डालकर के पन्ना पलट कर रख देते है. विकास के लिये भाषा की अहम भूमिका होती है और सबसे बडी बाधा भी. इस बाधा को दूर करने के लिये हमें हिन्दी व अन्य क्षेत्रिय भाषाओं पर व्यापक रूप से कार्य करना ही पडेगा. अब तक अंग्रेजी को सिखने में ही हम काफी साल व्यतीत कर के भी सफल नही हो पाये है क्योंकी हम अपने भाषा में जितना सहज हाे सकते है, उतना अन्य भाषा में नही. 



भाषा विवाद से विकास नही होगा -

यह कोई राजनीतिक मुद्दा नही है लेकिन अब तक तो बस मुद्दाकरण ही होता आ रहा है, हिंदी व अन्य भारतीयों भाषाओं के साथ. अगर भाषा की बाधा को दूर करने के लिये काम किया गया होता तो आज हम विकास के लिये ललाहीत ना होते और गरीबी दूर करने वाली योजना बस फाइल में नहीं बंद रहती. योजनाएं तो बहुत है लेकिन भाषा के वजह से समस्या जैसी की तैसी बनी रहती है. जब नेता चुनाव प्रचार के लिये जाते है तो वहां के लोकल भाषा में भाषण देते है तो फिर जन समस्याओं को सुलझाने के लिये वह एेसा क्यों नही करते है. इसलिये भाषण के आधार पर वोट तो मिल जाता है लेकिन योजना तो समझ के परे की भाषा में आती है. 

कैरे टूटेगा भाषा का बैरियर-
- मीडिया अन्य भाषाओं को प्रयोग कर के अपने भाषा के मौलिकता को न खत्म करे.
- क्षेत्रिय,हिंदी व अंर्तराष्ट्रीय भाषा के आधार पर हो शिक्षा व्यवस्था.
- क्षेत्रिय,हिंदी व अंर्तराष्ट्रीय भाषा के आधार पर हो सरकारी कामकाज.


                                  तीन भाषा कॉन्सेप्ट(क्षेत्रिय,हिंदी व अंर्तराष्ट्रीय) के आधार पर काम किया जाये तो काफी हद तक हम जन समस्याओं को दूर कर सकते है. इस तरह से हम जल्द ही विकास कर पायेंगे और लोगों का रूझान अपने भाषा के प्रति बढेगा. खैर अन्य भाषा में पकड बनाना अच्छा है और दुसरी भाषा को भी जानना चाहिये लेकिन अपनी भाषा को छोड देना उचित नही है. हिंदी का क्षेत्र सिकुडता जा रहा है. क्योंकि हमने अन्य देशों की भाषाओं को ज्यादा बढावा दे रखा है. इसके पीछे कारण है की हिंदी में अब तक कोई कार्य विश्व स्तरीय रूप से नही हुआ है. यहां तक कि ना कोई विकास का मॉडल, ना थ्योरी और ना ही कोई ढंग की मीडिया की किताब ही मिलेगी तो एेसे में हमें भाषा के बढते दौर में हिंदी के ऊपर भी विशेष ध्यान देने की जरूरत है.

Saturday 26 March 2016

'बिहारी पानी' का बंद होना ही नशामुक्ति!- "उसके बाद गुटखा, पान मसाला बन गया. इतना ही नही सरकारी कर्मचारी ही गुटखा खा कर अपना दांत व कार्यालय खराब कर के रखे हुये है तो फिर आम जनता से क्या उम्मीद किया जा सकता है. "

PC- www.mobieg.co.za

शराब तो शराब है चाहे आप एक बूंद ले या फिर एक बोतल, देशी ले या विदेशी. दारू व समाज का सबंध तो सदियों पुराना है और आज भी है. लेकिन उस वक्त मदिरा बस मदिरा होता था. आज तो अलग अलग नाम से शराब बिकते है और विदेशी शराब ने तो भारत को अपने वश में ही कर लिया है. ठीक वैसे ही जैसे की कोई सेठ आदमी किसी गरीब को कर लेता है, जी हुूजुरी के लिये या फिर जमीन हडपने के वास्ते. खैर मनसूबा जो भी हो लेकिन इतना तो है कि शराब का लत ठीक नहीं होता है, चाहे देशी हो या विदेशी. गांवो में देशी पी कर रामा बरबाद हाे गया और शहर का विदेशी दारू गटक कर मालया. ये दोनों अब अस्पताल में पडे अल्कोहाल का उचित रूप में सेवन कर रहे है लेकिन दोनों का बच जाना तो मुमकिन नहीं है. और ना जाने कितने है शराब के लूटे हुये. शराब ने भारत को गरीब बनाने में अपनी सक्रिय भूमिका निभाई है, हालांकि यह आम बहाने की बात है की इससे दर्द दूर होता है, चाहे वह दर्द दिल टूटने का हो या मेहनत मजदुरी का. बहाना इसलिये कहा क्योंकी की दर्द दूर करने के लिये तो दूध व हल्दी से तो बेहतर तो कुछ भी नहीं है लेकिन क्या करें पीने वालों को तो बस बहाना चाहिये और समय जो भी हो रहा हो भट्ठी खुला होना चाहिये. यह बहाना और भट्ठी छोटी है लेकिन कितने घर परिवार को इसने तबाह कर दिया और अभी पता नही कितने होंगे. इस बरबादी से हर कोई वाकिफ है लेकिन क्या करे जब हमारी सरकार ही इसे लाइसेंस दे रखी है. जितने हमारे यहां विद्यालय नही है उतने तो मदिरालय है. हमारे अर्थशास्त्रीयों के अनुसार यह लाभकारी है क्योंकी सबसे ज्यादा कर वसूली का यह केंद्र है, लेकिन घर को जलाकर घर बनाना विकास है क्या! शराब होने वाले नुकसान को हर कोई जानता है क्योंकी लगभग हर घर में देशी विदेशी पीने वाले मिल ही जायेंगे. आज के दिनों में शराब हमारे समाज का पहचान बन चुका है और खास कर के बिहार राज्य तो बदनाम है शराब के वजह से. बिहार के पीने वालों ने हर राज्य में अपना छाप छोडा है और अलग अलग राज्यों में अलग अलग नाम है जैसे बिहारी पानी, झिल्ली, पाउच, इत्यादी. इसमें बुरा मानने वाला कोई बात नही है क्योंकी गुनाहगार तो दोनो है क्योंकी पीने वाले के साथ साथ पीलाने वाले भी भागीदार है. शराब को बंद करने व बिहार को नशामुक्त करने के लिये सरकार ने कदम तो उठा लिया है और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने लोगों से अपील भी किया है. बिहार के लोगों में कुमार के प्रति प्यार तो है लेकिन इस प्यार के लिये शराब से नाता तोडना क्या मंजूर करेंगे लोग. गुटखा को बंद करने के लिये भी सरकार ने कदम उठाये लेकिन उसके बाद गुटखा, पान मसाला बन गया. इतना ही नही सरकारी कर्मचारी ही गुटखा खा कर अपना दांत व कार्यालय खराब कर के रखे हुये है तो फिर आम जनता से क्या उम्मीद किया जा सकता है. केवल देशी शराब के बंद होने से न शराब से मुक्ति मिलेगा और संभावना है की देशी सेवन वाले अब कमाई का एक भी रुपया घर पर  न दे, अनाज बेच कर पीने वाला गहना बेचने लगे और कुछ हो न हाे शराब माफिया इसका नाम बदलकर बिहारी पानी तो दे ही देंगे क्योंकी यह केवल बडे फायदे का सौदा जो है. अगर मुनाफा नहीं है तो फिर शराब को ही बंद कर देना चाहिये, चाहे वह देशी हो या विदेशी.


Friday 25 March 2016

खुद के हाथों से ही अपने चेहरे पर रंग लगाना होगा-"... तन के तार छूए बहुतों ने/ मन का तार न भीगा/ तुम अपने रंग में रंग लो तो होली है. होली हमारी है और सच में जब तक कोई अपना न छू दे तो फिर ऐसी होली का क्या मतलब!

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रंगों व पकवानों के त्यौहार होली में हर कोई बच्चों के जैसे मस्ती मिजाज से भरा रहता है. क्योकिं फगुआ बयार का असर ही एेसा होता है और प्राकृतिक परिवर्तन का मजेदार असर इसी मौसम में देखने को मिलता है. परिवर्तन तो इस कदर का होता है कि बुजुर्ग भी जवान और गांवों की काकी भाभी बन जाती है. यूं कहे की बसंती बयार सब लोगों के हया के लिबास को उडा ले जाती है. इसलिये तो देश विदेश में रहने वाले होली में घर आने को बेकरार हाे जाते है और स्पेशल ट्रेनों को पकड कर के घर की ओर खींचे चले आते है. वैसे त्यौहार का खास असर उत्तर भारत में ज्यादा देखने को मिलता है लेकिन धीरे धीरे इसका प्रचलन अन्य प्रदेशों व देशों में भी देखने को मिल रहा है. हमारे पडोसी देश पाकिस्तान ने तो इस बार हाेली मना कर के एक नायाब तोहफा दिया है. वैसे अगर होली मनाने के पीछे तो कई तथ्य दिये गये है लेकिन इसके बढते रोचकता को देखते हुये कहा जा सकता है कि होली तो बस मिलन कराने का माध्यम है, शिकवा गिला को भुलाने का दिन है और प्यार भरे मौसम से मस्ती चुराने व लूटाने का दिन है. ऐसे मौसम में कविता, शेरो शायरी तो यूं ही निकलने लगती है. तो आप खुद सोंचिये की इस होली को मनाने का क्या राज है. जोगीरा (होली में गाया जाने वाला प्रमुख गीत) जिसके एक सा रा सरा रारारारा से समां भर जाती थी लेकिन यह परम्परा अब खत्म हो रही है क्योंकी इसकी जगह तो अश्लील गानों व डीजे ने ले ली है. लेकिन इस मौसम का मजा अब किरकिरा हाे रहा है, जब हम शराब, गांजा इत्यादी का सेवन कर लेते है और मारपीट व छेडछाड कर के अपने साथ साथ अन्य लोगों को भी मुसीबत में डाल देते है. इन्हीं सब के वजह से होली के दिन बहुत लोग अपने घरों से बाहर नहीं निकले और इस त्यौहार को हम शराब व अश्लीलता का पहचान दे कर के इसकी शालीनता व उमंग का विलय कर रहे है. घर घर घुम कर के रंग गुलाल लगाना व जाेगीरा का आनंद उठाना खत्म हो रहा है. अब तो हम  पुआ पकवान का मिठास भी भूल गये है. लेकिन इस कदर सिलसिला जारी रहेगा तो एक दिन ऐसा आयेगा की हमें खुद के हाथों से ही अपने चेहरे पर रंग लगाना होगा. माखन लाल चतुर्वेदी विवि. के विभागाध्यक्ष पीपी सिंह के फेसबुक वाॅल की यह पंक्तियां तुम अपने रंग में रंग लो तो होली है / देखी मैंने बहुत दिनों तक/ दुनिया की रंगीनी/ किंतु रही कोरी की कोरी/ मेरी चादर झीनी/ तन के तार छूए बहुतों ने/ मन का तार न भीगा/ तुम अपने रंग में रंग लो तो होली है. होली हमारी है और सच में जब तक कोई अपना न छू दे तो फिर ऐसी होली का क्या मतलब!

Tuesday 22 March 2016

इ हमार बिहार, दी सबके बहार- "बस यूं ही प्यार देते रहिये ताकि मिशाल बने हम समाज के लिये और आने वाले वर्तमान के लिये."

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इ चाणक्य के धरती बिहार, हां! वही जिसने राजनिती को जन्म दिया और अइसे कहे कि लोकतंत्र के ऊर्जा. काहे की बिना राजनिती के तो जनतंत्र बिल्कुल अधुरा है, ठीक वैसे ही जैसे बिना पेट्रोल की बाइक. चन्द्रगुप्त के एक विचार के ऊपर मोटे मोटे राजनितीक ग्रंथ लिखे गये और आज भी कोई न कोई तो लिख ही रहा होगा. आज आप जो भी देख रहे है राजनिती के क्षेत्र में, नेता और नेतृत्वकारी का बढता क्षेत्र सब यही की ऊपज है. आज तो हाल ऐसा है की हर घर में नेता है और हर जिले में राजनितीक पार्टीयां. चाहे महागठबंधन हो या राजनिती के नये नये चाल, बिहार देता है. देश के पहले राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद, छात्र नेता के जनक जय प्रकाश नारायण और आज के प्रसिध्द सफल नेता लालू प्रसाद यादव व नीतीश कुमार इन्ही की देन है. हमारा तो डीएनए ही राजनिती का है और ब्लड ग्रुप भी. कुशल समाजिक विचारकों के वजह से ही तो हमने विश्व का पहला नालंदा विश्वविद्यालय दिया. भोजपुरी को तो प्यार सब करते है लेकिन बिदेशिया के लेखक व निर्देशक ने इसको देश विदेश में पहुंचाया तो फिर उनकाे कैसे बिसार दे. आज तो भोजपुरी गानों पर विदेशी भी थिरकने लगे है, विश्वास नही है तो अमरिका में रिमेक हुआ लालीपाप लागेलु सुन लिजिये. और यहां की बोली तो इतनी प्यारी है की हिंदी के फिल्मों में इसका व्यापक रूप से प्रयोग हो रहा है और कई सुपरहिट फिल्मों का यह राज है. यह एक नयी क्रांति भर रही है बालीवुड के फिल्मों में. इन्हीं प्रभावों से तो बिहार सरकार इस बार प्रभावित हाे बिहार फिल्म प्रोत्साहन नीति बनाने का संकल्प ले लिया है ताकि उदित नारायण, मनोज वाजपेयी, नवाजुद्दीन सिद्दीकी, संजय मिश्रा, पंकज त्रिपाठी, नीतू चंद्रा जैसे अन्य बिहारी कलाकार उभरे व अपनी पहचान बना सके. बिहार तो विहार का केंद्र इतिहास काल से ही रहा है और फिलहाल में हमारी सरकार ने इस पस विशेष ध्यान देते हुये, विशाल संग्रहालय और गंगा का सुरक्षित व मनोरम सैर कराने के लिये कार्य शुरु कर दिया है. काहे की बुध्द का गया, राजगिर के पहाड, वैशाली की सभ्यता और मधेपुरा का पेंटींग तो हमें यही राह दिखाता है. विश्वास कर के एक बार बिहार के विरासत का वास्तविक दर्शन तो किजिये. हालांकि दारू के वजह से हम थोडे बदनाम है लेकिन नशा मुक्ति के लिये पहला कदम भी हमने बढा दिया है ताकि अापके खातिरदारी में कमी न हो. जब आयेंगे तो लिट्टी चोखा और बिहारी टानिक सत्तू का आनंद ले लिजियेगा काहे की ऐतना महंगाई में एतना सस्ता, स्वादिष्ट और सेहतमंद कुछ नहीं मिलेगा. क्योंकी इसका स्वाद आमिर खान, अमिताभ बच्चन जैसे अभिनेता भी ले चुके है. चाहे विदेश हो या देश हम लोग हर जगह अपनी पहचान बना रहे है अौर समाज को एक नया आयाम देते हुये आ रहे है. उदाहरण बहुत है और आपके सामने है. इतिहास व आज के आंकडो को देखिये हमने जब भी किया, नया व सृजनशील किया और उदाहरण बने समाज के लिये. यह गुमान के साथ नही बल्कि गर्व से बोल रहा हूं क्योकिं इस गर्व का एहसास भी आपने ही करवाया है और और बस यूं ही प्यार देते रहिये ताकि मिशाल बने हम समाज के लिये और आने वाले वर्तमान के लिये.

३०% गरीबों के लिए सामाजिक सुरक्षा क्यों जरूरी हैं ?

विषय - परिचय :- निबंध की गहनता में जाने से पहले विषय से रु - ब - रु होना आवश्यक हैं ,अन्यथा विषय के साथ बेईमानी हो जायेगी और समाज कल्याण की बातों में बेईमानी करना ,सामाजिक - कल्याण के पक्ष में नहीं होंगी। निबंध का विषय " ३०% गरीबों के लिए सामाजिक सुरक्षा क्यों जरूरी हैं ?" इस प्रश्नवाचक विषय में मूलतः 'सामाजिक - सुरक्षा ' व 'गरीबी ' के ऊपर प्रकाश डाला गया हैं।  इनको सरल भाषा में समझना ही प्रभावकारी  होगा इसलिए ' सामाजिक - सुरक्षा '- का सरल मतलब हैं की जन - जन की भलाई (सुरक्षा) और दूसरी तरफ बात की गई हैं 'गरीब या गरीबी ' - यानि की समाज का वैसा भाग जो की अपने आधारभूत आवश्यकताओं को पूर्ण करने में सक्षम नहीं हैं और निर्धनता यह सिद्ध करती हैं की समाज का  चौतरफा  विकास अभी भी बाकी हैं, चाहें वो गरीबी की दर ३० % हो या २० % और भारत सरकार की राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन के अनुसार लगभग २२% लोग आज भी गरीबी रेखा से नीचे हैं। एक विकसित व खुशहाल समाज के निर्माण के लिए यह जरूरी हैं की वो आर्थिक व सामाजिक आधार पर पिछड़े लोगो को सार्वजनिक तौर पर सुविधाएँ उपलब्ध कराये।
                            सामाजिक सुरक्षा तो हर नागरिक के लिए जरूरी हैं लेकिन विशेषतः आवश्यक हैं वैसे जनमानस के लिए जो की असमाजिक खतरों के दायरे में हैं और वो हैं हमारे समाज के ३० % गरीब नागरिक। सरकार इनकी सुरक्षा अथवा विकास के लिए आज़ादी के बाद से ही कार्यरत हैं क्यूँकि  आधुनिक भारत के निर्माता डॉ. अम्बेडकर  के अनुसार - " एक कल्याणकारी समाज के गठन के लिए सबका विकास होना जरूरी हैं " तो फिर ३० % गरीबों को सामाजिक - सुरक्षा देना तो अति आवश्यक हैं और इस संदर्भ में कुछ पैनी व विश्लेषित बातें निम्नलिखित हैं :-
(०१) सामाजिक - समानता: - " समाज में हर व्यक्ति का समान अधिकार हैं और जिस समाज में समानता नहीं हैं , उसका मूल रूप से विकास सम्भव नहीं हैं " डॉ. अम्बेडकर का यह कथन अनुभविक स्तर से देखा जाये तो सही हैं क्यूंकि आज हम समानता के अधिकार के वजह से ही एक लोकतंत्रात्मक देश में हैं और लोकतंत्र में जन - जन की भागीदारी महत्वपूर्ण हैं। जॉन हॉब्स के सिद्धांत - " राज्य की उत्पति व सामाजिक समझौता का सिद्धांत " यह कहता  हैं की सामाजिक तौर से राज्य का निर्माण हो और एक सफल राज्य के निर्माण के लिए यह चुनौती होती हैं की वो अपने नागरिकों को कैसे संतुष्ट रखेगा ? गरीबी के वजह से लोगो का आस्था व संतोष ,सरकार के प्रति टूटता हैं ,इसलिए लोकतंत्र यह कहता  हैं की सबको सामाजिक तौर से समानता दी जानी चाहिए।

(०२) संविधान - सुरक्षा: - लोकतंत्र को बचाने व अर्थकारी बनाने के लिए संविधान बनाया गया हैं।  संविधान ही तो राष्ट्र की सुन्दरता को बढाती हैं। संविधान के द्वारा ही हम किसी राज्य या राष्ट्र को सुचारू व अनुशासित रूप से चलते हैं। संविधान हमें सामाजिक - सुरक्षा की गारण्टी  भी देता हैं। राज्य के नीति निदेशक तत्व भी सभी कॉम निर्वाह मजदूरी , प्रसूति सहायता इत्यादि प्रदान कराता हैं। संवैधानिक सुंदरता को बरकरार रखने के लिए गरीबो को सामाजिक - सुरक्षा देना जरूरी हैं क्यूंकि डॉ . प्रेम सिंह की किताब " उदारवाद की कट्टरता " यह कहती हैं की समाज में समरसता बनाये रखने के लिए सामाजिक - सुरक्षा मुहैया करवाना सरकार का दायित्व हैं।

(०३) आर्थिक - विकास :- किसी भी राष्ट्र के विकास के लिए अर्थव्यवस्था का मजबूतीकरण अनिवार्य हैं। आर्थिक - विकास के लिए यह आवश्यक हैं कि गरीबी को मिटाया जाये क्यूँकि यह विकास कि सबसे बड़ी बाधा हैं। आर्थिक - तंगी के कारण व्यक्ति अपनी मूलभूत जरूरतों को पूरा करने में सफल नहीं हो पता हैं , चाहें भोजन हो या शिक्षा। आर्थिक स्तर से विकास करने के लिए रोजगार का होना आवश्यक हैं और जबतक बेरोजगारी रहेगी , हम सामाजिक तौर से आर्थिक विकास नहीं कस पाएंगे और भारत सरकार ने इसको दूर करने करने के लिए ' रोजगार गारंटी योजना ' को लागू कर के बेरोजगार ग्रामीणों को रोजगार देने में सफल रही हैं।  अर्थव्यवस्था की  मजबूती के लिए यह भी जरूरी हैं की राष्ट्रीय आय को बढ़ाया जाये और राष्ट्रीय आय को बढ़ने के लिए हमें ३० % गरीबी की खाई को भरना होगा ताकि सकल घरेलू उत्पाद और सकल राष्ट्रीय उत्पाद को बढ़ावा मिले। सबका साथ ही हमारे विकास के मार्ग को मंजिल तक पंहुचा सकता हैं।

(०४) स्वस्थ्य व संगठित समाज निर्माण :-  जिस तरह कोई बीमारी मानव शरीर को कमजोर और खोखला बना देती हैं ,ठीक उसी तरह से गरीबी भी समाज के लिए बीमारी की तरह ही हैं , जोम की विकास के राह में बाधा बनती हैं। गरीबी की वजह से आम लोग सही शिक्षा दवा - ईलाज ,भोजन ,आवास  इत्यादि भौतिक जरूरतों को भलीभांति रूप से पूरा नहीं कर पति हैं। जिस समाज में भौतिक जरूरतों का अभाव रहेगा उस समाज का सर्वांगीण विकास तो कतई सम्भव नहीं हैं। भले ही हम युवा भारत का नारा लगा ले  लेकिन वास्तव में तो हम, एक स्वस्थ्य व सुसंगठित समाज का निर्माण कभी कर नहीं सकते हैं। गरीबी यह साबित करती हैं की हम आज भी असामाजिक - तत्वों से ग्रसित हैं और जब से सरकार ने सरकारी योजनाओं जैसे की इंदिरा आवास योजना, राशन - वितरण, सर्व - शिक्षा अभियान , सरकारी अस्पताल व अन्य स्वास्थ्य सम्बंधित योजना , जन - धन योजना , अटल पेंशन योजना इत्यादी योजनाओं  को लागू किया  और  समाज में फलकारी परिवर्तन भी दिखे।

निष्कर्ष :- "सोने की चिड़ियाँ " कहा जाने वाला भारत के लिए गरीबी एक दाग के जैसा हैं और यह हमारे लिए चुनौती बन चूका हैं।  आज भी हम सामाजिक तौर पर आज़ाद नहीं हैं क्यूंकि बेरोजगारी व भूख की जंजीरों ने हमारे कर - पैरों को जकड कर रखा हैं। गरीबी यह बता रही हैं की हम आज भी मोहताज हैं रोटी , कपड़ा और माकन के लिए।  गरीबी की गुलामी ने हमे असुरक्षा के दायरे में खड़ा कर रखा हैं , तभी  तो आज हम सामाजिक सुरक्षा के लिए चिंतित हैं ,लेकिन सच तो यह भी हैं की संघर्ष , मानव सभ्यता के साथ ही चला आ रहा हैं और हम सामाजिक - सुरक्षा के माध्यम से आज गरीबी की दर को ७३ % से घटा कर आज ३० % तक ला दिए हैं लेकिन सवाल तो यह भी उठता है की योजनाएं तो ४० - ५० वर्षों से चलाई जा रही हैं और हम आज भी गरीबी की गिरफ्त में हैं तो हम इस बात से कतई इंकार नहीं कर सकते है की इसके लिए हम खुद ही जिम्मेवार है क्यूंकि हमने अपने सामाजिक दायित्व को निः स्वार्थ भाव से निभाया नहीं हैं। महात्मा गांधी का " न्यायसिता का सिद्धांत " यह कहता हैं की समाज के उच्चवर्गीय लोगों  का यह दायित्व बनता हैं की वो पिछड़े - वर्ग को भी अपने साथ ले कर चले और गाँधीजी हृदय परिवर्तन की बात करते हैं तभी तो आज गैर - सरकारी संग़ठन भी समाज के उठान के लिए काम कर रहे हैं ताकि समाज में आर्थिक व सामाजिक तौर से समानता आये और हम भी विकसित देशों में शामिल हो जाये। गांधीजी की किताब "मेरे सपनों का भारत" में भी सामाजिक उत्थान के लिए गरीबों को सामाजिक स्तर से उठाने की बात की पुष्टि करते  हैं। सचमुच में हमे फिर से भारत को "सपनों का भारत" बनाना हैं तो गरीबों की गिनती को शून्य करना होगा। लोकतंत्र यह कहता हैं की समाज में सबका समान अधिकार हैं और इस समानता की समरसता को बनाये रखने के लिए हमें जन - जन को सामाजिक , आर्थिक व राजनैतिक रूप से मजबूत बनाना ही होगा।

सन्देश :- मेरी यह स्व - रचित कविता "फिर सोने की चिड़ियाँ उड़ेगी " विषय को बताती हुयी -
फिर सोने की चिड़ियाँ उड़ेगी
गरीबी मिटेगी बेरोजगारी हटेगी
गरीबी मिटेगी राष्ट्रीय आय बढ़ेगी
गरीबी मिटेगी अराजकता  घटेगी
गरीबी मिटेगी तभी सँविधान की गरिमा बचेगी
गरीबी मिटेगी तो लोकतंत्र जीतेगी
बस गरीबों को सुरक्षा के साथ मौका दो
गरीबी मिटेगी गाँधी स्वप्न सजेगी
गरीबी मिटेगी तभी तो
फिर से सोने की चिड़ियाँ उड़ेगी ।।

Monday 21 March 2016

नरक बना नेहरु नगर का मध्य विद्यालय-- " 460 बच्चों के लिये 05 क्लास रुम, कचरा व बदबु से भरा, अतिक्रमण का शिकार यह बदहाल विद्यालय हैं बिहार की राजधानी पटना का तो फिर बाकि जगहों का क्या हाल होगा ''


विद्यालय का मुख्य हिस्सा 

मैं अब और कहां जाऊं फरियाद करने, कितने पदाधिकारी आये अौर आश्वासन देकर गये लेकीन आज तक हमारा विद्यालय अतिक्रमण को सहन कर के बच्चों को पढा रहा है ताकि इनका पढाई ना रुके. नेहरु नगर मध्य विद्यालय कि प्रभारी प्रधानाध्यापिका मृदुला कुमारी को तो अतिक्रमण शिकायत की एक फाइल ही बनानी पड गयी, जिसके पन्ने लगभग बिहार सरकार के हर एक शिक्षा अधिकारी को प्रतिलिपी के रुप में भेजे जा चुके है. अखबारों में भी इसकी खबर छपी है लेकिन कोई असर नही पडा है. झुग्गी झोपडीयों के बीच में स्थित यह मध्य विद्यालय धिरे धिरे स्थानीय लोगों के अतिक्रमण का शिकार होते जा रहा है.जमीन पर तो कब्जा किया ही है यहां के लोगों ने, साथ ही साथ कचरा घर बना दिया है विद्यालय को.जबकि यहां पर स्थानीय लोगों के बच्चे ही पढते है, जिनके घर में खाने के लाले है जो अपने बच्चों को प्राइवेट विद्यालय में नही भेज सकते है. लेकीन वो लोग अपने बच्चाे को पढाना चाहते है और दुसरी ओर वही लोग स्कूल को बंद करने के कगार पर ले जा रहे है. हालांकि मृदुला कुमारी कई बार यहां के प्रतिष्ठित लोगों के साथ बैठ कर स्थानीय लोगों काे समझाने का प्रयास भी की है, लेकिन कोई सुधार नही दिख रहा है. उनके शिकायत के आधार पर पूर्व जिला पदाधिकारी जितेंद्र कुमार व पटना सदर के अंचल पदाधिकारी भी जायजा लेकर जा चुके है. अभी तक कोई कार्रवाई नहीं हाे पायी है शिक्षा के मंदिर के माहौल को बिगाडने वालों पर और ना ही कोई आशा की किरण दिखायी दे रही है. लेकिन बच्चों के भविष्य को लेकर चिंतित मृदुला कुमारी को आज भी उम्मीद में है. 


क्या है समस्या

1.जमीन पर स्थानीय लोगाें का कब्जा बढते जा रहा है और जगह के अभाव में आठवीं तक का यह विद्यालय सिर्फ पांच रूम में बामुश्किल से चल रहा है. खेलने के लिये मैदान नही है. गैलरी के बीच में ही हैंडपम्प लगा हुआ है जिसके वजह से चारों तरफ पानी फैला रहता है, जिसके वजह से कई बार शिक्षक व बच्चें गिरते रहते है. हालांकि कुछ विभागीय आदेश से मध्यान भोजन बंद है लेकिन हमारे यहां किचन के लिये भी कमरा नही है. इस वजह से पहले भी भोजन बाहर से आता था.
2. विद्यालय गेट पर पुरूष मूत्रालय बनने के वजह से काफी दिक्कत हो रहा है क्योकि यहां पर महिला शिक्षिका व छात्रा ज्यादा है और बदबू भी बदहाल कर दी है. 
3. धुम्रपान रहित नही है विद्यालय क्योंकी गेट पर गुमटी होने के कारण तंबाकू व सिगरेट यहां पर खुलेआम पीते है. इसका बुरा प्रभाव बच्चों पर पडेगा. इतना ही नही विद्यालय के छत पर बैठ कर गांजा भी खुलेआम बेखौफ पीते है लोग. 

विद्यालय की खिड़की

4. कचरों के वजह से बंद है विद्यालय कि खिडकीयां क्योंकी लोगों ने अगल बगल से कचरा डाल कर भर दिया है और पीछे वाली खिडकी को खोलने के साथ ही गोबर से भर जाता है क्लास रूम.

मल से भरा हुआ शौचालय 

5. विद्यालय का शौचालय बना सार्वजनिक, मृदुला बताती है की सुबह सुबह यहां के स्थानीय लोग बाउंड्री फांद कर घुस आते है और इधर उधर लेट्रींग कर के गंदा कर दिया है. अब यह शौचालय भर के बंद हो चुका है जिसके वजह से सबसे ज्यादा परेशानी बच्चीयों को हो रहा है.
अधिकारी भी बेखबर

अंचल पदाधिकारी को सौंपा गया आवेदन 
नेहरु नगर मध्य विद्यालय कि प्रभारी प्रधानाध्यापिका मृदुला कुमारी ने पटना सदर के अंचल पदाधिकारी को आवेदन 19.03.2015 को ही दिया था और लगभग बिहार सरकार के अन्य शिक्षा अधिकारी को प्रतिलिपी भेजी है. लेकिन उनके शिकायत के आधार पर पूर्व जिला पदाधिकारी जितेंद्र कुमार व पटना सदर के अंचल पदाधिकारी भी जायजा लेकर जा चुके है. अभी तक कोई कार्रवाई नहीं हाे पायी है.

मृदुला कुमारी,प्रभारी प्रधानाध्यापिका

क्या कहते है शिक्षाकर्मी 

'' ऐसे मैं बेहतर संतुलित शिक्षा की कल्पना नही की जा सकती है और प्राइमरी शिक्षा ही बच्चों का भविष्य तय करता है. लेकीन इस तरह की कुव्यवस्था के लिये जिम्मेवार कोई भी हो लेकीन नुकसान तो उन अबोध बच्चों का ही है, जो की यहां पर ज्ञान लेने के उद्देश्य से आये है और अतिक्रमण का शिकार हो रहे है. यह हमारे समाज के लिये भी घातक है. मैं 1987 से यहां पर काम कर रही हूं ,इस नाते व समाजिक दायित्व समझ कर बच्चों को उनका हक दिलाऊंगी''.
मृदुला कुमारी, ( प्रभारी प्रधानाध्यापिका)



''सरकार को सुविधाओं के साथ साथ जांच भी करना चाहिये ताकि शिक्षा व्यवस्था को और भी संतुलित व उच्च गुणवत्ता वाला बनाया जा सके. हमारी तरह अन्य भी विद्यालय होंगे जो की अतिक्रमण का शिकार हो रहे हाेंगे. सरकार को इस पर ध्यान देना चाहिये ताकि शिक्षा का वास्तविक उद्देश्य पूरा हाे. मैं एक माँ होने के नाते इतना कहना चाहूंगी की ये मेरे बच्चे के जैसे है और इनको अधिकार दिलाना मेरा कर्तव्य है''.
मंजू कुमारी सिंह, (शिक्षिका)