Monday 7 December 2015

आदत से मजबूर हैं हम

आदत से मजबूर हैं हम 

इस बात से तो हम कतई इंकार नहीं कर सकते हैं की दुर्घटना के बाद जागने की आदत हमारी पुरानी हैं। जब तक ठेस ना लगे हम अपनी आँखों को खोलकर किसी भी समस्या पर विचार - विमर्श कर ही नहीं सकते। "विनाश काले विपरीत बुद्धि " के जैसे कहावत हम अक्सर कहने से नहीं चूकते हैं पर कभी इस बात पर गौर ही नहीं किये की आखिर यह विनाशी पल आया कैसे और इसको लाने वाला कौन हैं ? क्यूँकि हम सब बखूबी यह जानते हैं की लगभग समस्याओं को आमंत्रित करने वाला कोई गैर नहीं हैं। हम बुद्धिजीवी तो हैं पर अपनी गलती को स्वीकारना हमने सीखा ही नहीं। आज हम जितना ज्यादा अविष्कार कर रहे हैं उतने ही तेजी से विनाश की तरफ रूख कर बढे जा रहे हैं। अविष्कार का मतलब जिंदगी को सुगमता देना हैं ,ना की दुर्गमता का द्वार खोलना पर पता नहीं हम कब समझेगें इस बात को ? अगर इन आँखों से देखने का और दिमाग के उपभोग का कर अदा करना होता तो आज का यह दृश्य ही अदृश्य हो गया होता।  बिल्कुल वैसे ही जैसे हमारी मानवता और प्राकृतिक - सुंदरता विलुप्त हो रही हैं। 
                      हम भलीभाँति यह जानते हैं की वृक्षों को काटने से हमे मुफ्त  ऑक्सीजन और भी जाने कितने जीवनदायिनी चीजे नहीं मिलेंगी फिर भी आँख बाद कर के कटे जा रहे हैं। परन्तु मेरे समझ से परे हैं एक बात की हमे तो मुफ्तखोरी की भी आदत हैं फिर प्रकृति को क्यों मिटाने पर उतारू हो गए हैं। क्यूंकि हमारी आदत तो यह भी हैं की हम मतलबी भी हैं। मुफ्त का ज़ेहर भी हमे जान से ज्यादा प्यारा लगता हैं। यकीं नहीं हैं तो बीच सड़क पर रुपयों की गड्डी उछाल कर देखिये ,लोग अपने जान की परवाह किये बिना ही बीच सड़क पर कूद पड़ेंगे बिना सोंचे - विचारे। हैमलेट लगाने से हमारी सुरक्षा हैं पर नहीं सकते क्यूंकि नियमों को तोड़ने की आदत हैं। खुले में शौंच करना गन्दी बात हैं पर इसका आनंद लेना नहीं छोड़ेंगे। सफाई तो सबको अच्छी लगाती हैं पर साफ़ करने में शर्मिंदगी हैं और कचरा फैलाना फूल बरसाने के जैसा लगता हैं ,इसलिए तो आज सिर्फ सफाई के लिय करोड़ों खर्च उठाने पड़ रहे हैं। अगर इस पैसे का उपयोग हम विकास के कार्यो पर करते तो शायद आज हम अमेरिका जैसे देशो के साथ होते। आज हमारी हर विफलता के पीछे हमारी इन्ही आदतों का श्रेय जाता हैं और हम हैं की समस्याओं से जूझने के बावजूद भी अपने होश को सम्भाल नहीं पा रहे।
                           2009 में स्वाइन फ्लू का आगमन भारत के पुणे में हुआ और जाने कितने लोग मरे गए। बात मरने की नहीं हैं परन्तु विवशता तो यह हैं की 05 सालों के बाद भी हम इस पर काबू नहीं पा सके और आज भी लोग संक्रमण से बेमौत मरे जा रहे हैं। अगर बिना किसी लापरवाही के सही ढंग से शोध कर के दवाओं का निर्माण किया गया होता तो आज फिर से इस बीमारी का कुप्रभाव नहीं दिखता। और भी जाने कितनी बीमारिया हैं जिनका कारगर उपचार  पास नहीं हैं। लेकिन एबोला से भी बचने का उपचार हमे अभी से ढूँढ निकालना चाहिए नहीं तो बेमौत मरने की प्रतीक्षा तो हम सदियों से करते आ रहे हैं।  हमारे लापरवाही के आदत से ही जाने कितने लोग मरे जाते हैं और हम खुद को भी नहीं बचा पाते हैं।
                               21 वीं सदी यानि की आधुनिकता का भरमार  इस तरह से  साथ चलेंगे तो  कल को  रूप में ही देखेंगे। बात चाहें सड़क या घरेलू दुर्घटना की हो ,एक वजह तो साफ़ - साफ  दिखता हैं - लापरवाही और दुर्घटनापरान्त जगने की आदत।  शिक्षित तो हैं पर आदतो से मजबूर हैं फिर हमारी शिक्षा का कोई मोल ही नहीं। क्यूंकि लापरवाही से तो जानवर भी जी लेते हैं।  अविष्कार के साथ ,लापरवाही का तिरष्कार नहीं किये तो आने वाली हवा  स्वाइन - फ्लू और एबोला जैसे घातक रोग हमे मुफ्त में बेशक मिलेंगे क्यूंकि ,भाई ! हम तो अपनी आदत से हैं मजबूर। सत्कार - सी आदत का स्वागत कर के लापरवाही को दूर करना  ही मानवता के लिए हितकर होगा।
{सधन्यवाद }

- रवि कुमार गुप्ता
एम.ए. इन जर्नलिज्म एण्ड मास्स कम्युनिकेशन
केन्द्रीय विश्वविद्यालय , उड़ीसा
  

Monday 9 November 2015

मूकदर्शक नहीं ,मार्गदर्शक बने युवा

मूकदर्शक नहीं ,मार्गदर्शक बने युवा --
युवाशक्ति राष्ट्र की अनूठी और अमिट बल हैं ,जिसके बढ़ते सकारात्मक  कदम  देश को विकास की ओर अग्रसर करते हैं और नकारात्मक कदम विनाश की ओर। इतिहास से लेकर आजतक और भारत से लेकर अमेरिका जैसे अन्य देशो की बात करे तो युवा शक्ति का अनेकों अनूठे उदहारण देखने को मिलेंगे। हाँ ,यह एक अलग बात हैं की हमारा आज का युवा समाज अपने पुरखों की बलिदान को भूल कर तीसरे - दर्जे के राष्ट्रों में शामिल हो गया हैं और अन्य पहले - दर्जे के देश अपने युवाओं व युवा - विचारो  के साथ आज हम जैसे देशों के लिए पथप्रदर्शक का काम रहे हैं। यानि कि  हमारा आज का समाज अपने विवेकानंद जैसे विवेकों - विचारों  को बिसार कर संसाधनों का मोहताज बना हुआ हैं। संसाधनों की कमी से विकास विलम्ब हो सकता हैं परन्तु रूक नहीं सकता क्यूँकि कल तो हमारे पास कुछ भी नहीं था फिर भी हमारे युवा अन्य देशों में जा कर के अपने विचारों से लोहा मनवाए और आज हमारे पास बहुत कुछ होते हुए भी हम लाचार बने फिर रहे हैं। आज का  लोकतांत्रिक - भारत अपने ७५ फ़ीसदी युवाओं के साथ भी खुद को आंतरिक - रूप से कमजोर महसूस कर रहा हैं क्यूंकि जिस लोकतंत्र को लेकर हम सबको समानता और आजादी दिए हुए हैं ,उस लोकतंत्र के ऊपर एक राजतंत्र का राज हो गया हैं और हम सब ख़ामोशी का लिबास ओढ़े यह चुपचाप बर्दाश्त कर रहे हैं। इस ख़ामोशी का वजह हैं की हम अपने समाज के प्रति जागरूक नहीं हैं ,स्वार्थ से भरे पड़े हैं और जागरूक लोगों को सहयोग नहीं कर रहे हैं अर्थात हम पथप्रदर्शक होने के बजाय मूकदर्शक बने फिर रहे हैं। १६वी लोकसभा चुनाव का परिवर्तन भी युवाओं का ही देन हैं परन्तु अब तक कोई ठोस फैसला हमारे - पक्ष में नहीं हुआ हैं और हम हैं की चुपचाप देखे जा रहे हैं। युवाओं का उदहारण देकर जीतने वाले नेता हमलोगो को अब तक कौन - सा स्थान दिए हैं ? ऐसा कहा जाता हैं की युवा हमेशा जोश व जल्दबाजी से काम करते हैं ,जिसके वजह से काम सफल नहीं हो पता हैं लेकिन हम युवाओं ने कभी ऐसा सोंचा हैं की आजादी से लेकर अबतक तो हमारे राष्ट्र का काम काफी अनुभवशील नेताओं के नेतृतव में ही हुआ हैं फिर क्यों हम दाने - दाने को मोहताज हैं ? युवाओं को अपने कर्तव्यों को समझने की जरूरत हैं , ना की बेसमझे हुए कार्यों के पीछे घूमने की। आज जरुरत हैं की सभी युवा अपने चुप्पी को तोड़ कर आगे निकले और मूकदर्शक ना बने और विवेकानंद और भगत के जैसे मार्गदर्शक बने ताकि हम फिर से सुनहले भारत का स्वप्न पूरा कर सके। 

Wednesday 14 October 2015

माँस पर मँडराते राजनीतिकबाज़

माँस पर मँडराते राजनीतिकबाज़ 

" मदीरा में डूब रही हैं मानवता 
और राम - रहीम के नाव को लगे हैं हम बचाने में "
कभी धर्म तो कभी माँस  के टुकड़ों के आधार पर लड़ता - झगड़ता हमारा बुद्धजीवी समाज। कभी चाय पर चर्चा करते हैं तो कभी चाउमीन को अपराध का कारण बताते हैं और अभी माँस पर बहस जारी हैं। ऐसा लग रहा हैं की अब कोई ठोस मुद्दा नहीं हैं हमारे पास चर्चा करने के लिए। मुद्दा बहुत हैं लेकिन गरीबी व जनसमस्याओं पर बात कर के मिलेगा क्या ,तभी तो हमारे नेतृत्वकर्ता धर्मगत व जातिगत मुद्दों पर बयान दिए जा रहे हैं। हम क्या खाएंगे और क्या नहीं खाएंगे इसका फैसला तो घर का मालिक भी नहीं हैं तो फिर किसी एक व्यक्ति के कह देने से हम मांस खाना छोड़ नहीं सकते हैं परन्तु कुछ नेताओं के बहस से ऐसा प्रतीत हो रहा हैं की अब हमे सांस लेने के लिए भी उनकी अनुमति लेनी होगी। ठीक हैं जनता माँस खाना छोड़ देगी लेकिन माँस में केवल गौ - माँस तो नहीं  आता हैं ना तो फिर जब बात बीफ की हो रही हैं तो हम भैंस,बैल इत्यादि के ऊपर बहस क्यों नहीं कर रहे हैं। चाहे बात आजतक ,इंडिया टीवी ,न्यूज़ नेशन या किसी भी इलेक्ट्रॉनिक्स मीडिया की करे तो यह देखने को मिला की एंकर बहस को बीफ पर शुरुआत करते हैं और पेनलिस्ट उसको गौहत्या या गौमांस पर लाकर ख़त्म कर देते हैं बिलकुल वैसे ही जैसे की बीफ ना खाने को लेकर के जोर डाला जा रहा हैं। हिन्दू धर्म में गाय को माँ   की प्रधानता दी गई हैं परन्तु उस वक़्त आस्था - भक्ति कहाँ चली जाती हैं जब बूढी - बाँझ गाय को सड़क पर छोड़ दिया जाता हैं और वो किसी ना  किसी हादसे का शिकार हो जाती हैं और उसकी दुर्गति को देख कर हम नाक बंद कर के भाग जाते हैं। इससे तो यह साफ़ ज़ाहिर हो रह हैं की कहीं न कहीं हमारा स्वार्थ भर तक का ही रिश्ता हैं और इतना ही नहीं जहाँ पर बीफ पर प्रतिबंध लगाया हैं वहां पर भी कुछ न कुछ फायदा देख कर ही  लगाया  गया हैं। अब तो यह भी बोला जा रहा हैं की सड़को पर भटकती गायों के लिए गौशाला बनाया जायेगा लेकिन यहाँ तो इंसानो के लिए भी पर्याप्त ना घर  ना ही आश्रम तो फिर जानवरों को कौन पूछता हैं।  अगर भरोसा नहीं हैं तो इंदिरा आवास योजना को देख  लीजिये हकीकत पता चल जायेगा। चाहे हिन्दू हो या मुस्लिम समुदाय भले ही जीवों के प्रति प्यार - श्रद्धा दिखा रहे हैं लेकिन वास्तविकता तो यही हैं की यही लोग इन जानवरों की बलि चढाने में भी नहीं पीछे हैं। मूलरूप से धर्म का मतलब हैं मानवता का रक्षा करना और अहिंसा का पालन करना लेकिन यहाँ तो धर्म का उपयोग किया जा रहा हैं मानवता को मिटाने के लिए क्यूंकि हरसाल जाने कितने मासूम लोग धर्म के दंगो में मर जाते हैं। अर्थव्यवस्था  की दृष्टि से देखा जाये तो भारत बीफ व्यापार में दूसरे स्थान पर हैं और यदि रोजमर्रा के जीवन पर भी गौर किया जाये तो  माँस के वजह से ही लगभग बहुत सरे लोगो का घर - गृहस्ती चलता हैं। बीफ बैन  यदि होता हैं तो यह हमारे लिए घाटे का सौदा होगा, सामाजिक स्तर से और अर्थव्यवस्था के स्तर से भी।
                            प्राकृतिक संतुलन बांये रखने के लिए आहार - श्रृंखला  वैज्ञानिक आधार से सही हैं और आज से नहीं जब से मानव सभ्यता हैं इंसान अपनी भूख मिटाने के लिए कुछ ना कुछ कहते आ रहा हैं और आज के दौर में बस इतना फर्क आया हैं की हम उन चीजो को नाम देकर चटपटा बना कर खाने लगे हैं। इस नाम के चक्कर में ही हम खुद को घनचक्कर में डाल रखे हैं।  बीफ को  बस माँस मात्र तक ही छोड़ दिया जाये तो फिर हमारे धर्मनिरपेक्ष दिवार को गिरने का खतरा नहीं होगा। लेकिन जिस तरह से हम लोकतंत्र के संविधान  को भूल कर के खुद के स्वार्थ के लिए लड़ - झगड़ रहे हैं तो कहीं ऐसा न हो की  फिर कोई धर्म ही ना बचे धरा पर। संविधान ने सबको समानता का अधिकार दिया हैं तो फिर हम किसी एक धर्म की आस्था को बरकरार रखने के लिए दूसरे धर्म की रोजी - रोटी तो नहीं छीन सकते हैं ,इसका अधिकार ना धर्म देता हैं और ना ही भारत का संविधान। बीफ खाने वालों में हिन्दू भी शामिल हैं और इसके व्यापार में भी ,तो क्या वे हिन्दू नहीं हैं। बीफ किसी भी बिरादरी का नहीं हैं और ना ही होगा , जिन लोगो ने इसको अपना कृषि व्यापार बना रखा हैं उनके लिए तो यही आस्था हैं और यही धर्म। बीफ पर प्रतिबन्ध लगाना हैं तो फिर हमें सिर्फ गाय के बारे में नहीं बल्कि अन्य  जानवरों के बारे में भी सोंचना चाहिए।
                         बीफ पर बवाल करने से अच्छा होगा की इसके व्यापार को और भी बढ़ाया जाये ताकि हम दूसरे स्थान से ,पहले स्थान पर आ जाये  क्यूँकि  धर्म और आस्था के साथ जोड़ कर चर्चा करना यह हमारे लिए घातक बनाते जा रहा हैं। माँस के टुकड़ों के लिए लोकतंत्र को खंडित करना , ना हिन्दू के पक्ष में हैं और ना ही मुस्लिम के। राष्ट्र और धर्म के लिए चिंता जताने वालों को प्रतिबन्ध लगाना हैं तो शराब , गुटखा , सिगरेट पर लगाये ताकि एक स्वस्थय समाज का गठन हो क्यूंकि मांस खाना  सेहत के लिए बुरा नहीं हैं तो फिर इस पर हो - हल्ला क्यों  ? संविधान ने बुचरखानों को आबादी से दूर बनाने को आदेश दे रखा हैं ताकि धर्म की आस्था को ठेस ना पहुंचे।  लेकिन जरुरत हैं सिर्फ इतनी की संविधान की सुंदरता को बरक़रार रखा जाये और मांस के ऊपर चील -कौवों  को ही मँडराने दिया जाये। हम तो इंसान हैं और हम ईद में गले मिलते हैं और दिवाली का दीप भी साथ मिलकर जलाते हैं क्यूंकि हमें तो बस खुशियों में एक - दूजे के साथ झूमने की आदत हैं। अब बीफ पर बवाल बंद करो और समाज गठन के लिए कुछ तो सवाल करो ताकि रोटी बंटे, इंसान की बोटी नहीं। 

Monday 30 March 2015

विकास का मूलमंत्र हैं नाटक

विकास का मूलमंत्र हैं  नाटक 

साहित्य की महता व सुंदरता को शब्दों से बयां करना उतना ही मुश्किल हैं जितना की किसी व्यक्ति के इच्छा से परे होकर कला का प्रदर्शन करवा लेना। साहित्य मन की सुंदरता होती हैं, जिसे सिर्फ महसूस किया जा सकता हैं।  साहित्य के भी कई एक भाग हैं और उनमे से एक हैं - नाट्य - कला। नाटक और समाज का सम्बन्ध २५०० वर्षों से चला आ  रहा हैं। यह एक ऐसा माध्यम हैं जिसके द्वारा हम आसानी से अपने भावनाओं व प्रतिक्रियाओं को प्रदर्शित करते हैं और  इतना ही नहीं मनोरंजन के साथ - साथ अपने समस्याओं का समाधान व भविष्य को लेकर सार्थक मंथन करते हैं। सदियों से चली आ रही नाट्य - विद्या के साथ - साथ अपने समाज को प्रगति के पथ पर भी अग्रसर करते  आए हैं और आज भी हम लोगो को जागरूक करने के लिए इसका प्रयोग करते हैं। यह संचार का एक ऐसा माध्यम  हैं  जिसकी भाषा शिक्षित ही नहीं बल्कि अशिक्षित व शारीरिक रूप से अपंग व्यक्ति भी बड़े गौर से समझ लेते हैं, मानव तो खैर बुद्धिजीवी हैं। बात अगर जानवरों की करे तो हमे इसका प्रभाव देखने को मिलेगा तभी तो हम विशालकाय जानवरों के सामने भावभिव्यक्ति से ही इनको अपनी तरह मानसिक रूप से तैयार कर देते हैं और जब बात भावभिव्यक्ति की आती हैं तो एक बात हमे समझने की जरूरत होगी की कला को भाषा - शब्दों की  नहीं बल्कि भाव {मन }की जरूरत होती हैं। कलाकार दर्शकों के मन की बात को बखूबी भाप लेता हैं और जब हम किसी के मानसिकता को पढ़कर उससे बात करेंगे तो यह तय है की समस्याओं का समाधान होना ही हैं ,इसीलिए तो हमारे जन - संचार विभाग के महान शोधकर्ताओं व विद्वानों का मानना  हैं की  जिस समाज के व्यक्ति मानसिक रूप से विकास नहीं करते तो उस समाज का विकास सम्भव नहीं हैं क्यूंकि अवरूद्ध मनोधारणा प्रगति के लिए हितकर नहीं होती हैं। नाटक ही वो मार्ग हैं जिसके द्वारा हम जन - समूह के जन - जन को  बिना किसी विशाल बाधा  के उन्हें हर एक बात बेहतर ढंग से बता और समझा सकते हैं। क्यूंकि नाटक की रसिकता और सलिलता मन की कुंठित अवधारणा को जड़ से ख़त्म कर देती हैं और साथ ही साथ मनोरंजन भी हो जाता हैं। ऐसा नहीं हैं की आज के दौर में नाटक नहीं हो रहा हैं परन्तु आज का यह समाज अपने मूल पथ से भटक चूका हैं और सिनेमा में परिवर्तित हो चूका हैं और अश्लीलता इसकी पहचान बन चुकी हैं ,तभी तो हम आज बस नाम का नाटक करते हैं और परिवर्तन यह कहता हैं की मैं कभी भी हितकर नहीं हूँ इसलिए इस क्षेत्र में एक संशोधन की जरूरत हैं ताकि विकास के नए स्त्रोत बने। हमारे इन्ही गलतियों की वजह से आज हमारा समाज दो वर्गों {अमीरी  - गरीबी } में बँट चूका हैं और संविधान ने भले ही हमे समानता और आजादी दे रखी हैं पर आज भी हम मानसिक रूप से हम विषम राह पर खड़े हैं।
                         वर्षों से चली आ रही बढ़ती नाट्य - कला के वजह से ही हम खुद को आज आधुनिक कर सके हैं तो फिर कैसे हम अपने सबसे प्रभावशाली माध्यम को किनारे कर विकास कर सकते हैं ? हर काल या हर समाज में भिन्न - भिन्न  भांति के लोग लोग होते हैं और हर समाज की कुछ न कुछ कुंठित मानसिकता होती है जो की विकास के मार्ग में बहुत बड़ी कठनाई खड़ा करती हैं , जिसके वजह से विकास के लिए किये गए  हमारे काम या योजना विफल हो जाते हैं। लोकतंत्र के जान समूह को यह समझने की जरूरत हैं की यह केवल मनोरंजन व प्रतियोगिता मात्र नहीं हैं बल्कि यह एक बहुत ही सहज और सरल पद्धति हैं जिसकी जरूरत आज की पीढ़ी के साथ कल के भविष्य तक को हैं। समाज के नेतृत्वकर्ताओं को भी इस क्षेत्र में निष्ठापूर्ण योगदान देकर इसे फिर से जन - जन तक पहुँचाने की आवश्यकता हैं। नाटक का सुप्रभाव तो हम जन  से लेकर जानवर तक देख ही चुके हैं तो इसको नज़रअंदाज़ किये बिना हमे फिर से इसको सामाजिक - मंच देना चाहिए और यह विद्या केवल नाटक मात्र नहीं बल्कि विकास की ऊर्जावान भाषा हैं ,जिसको शब्दों की नहीं केवल मन की जरूरत होती हैं।
                           अँधेरे मन की राह में नाटक का चिराग ही विकास को आलोकित करेगा , बस इसे समझने व समझाने की निष्ठापूर्ण कोशिश होनी चाहिए।



Friday 27 March 2015

खेल में हार - जीत के मायने

खेल में हार - जीत के मायने 

सौहार्द के खेल में जीत की सौगात नहीं होती हैं। किसी भी खेल में एक दाल की हार ही विपक्ष की जीत सुनिश्चित करती हैं और वैसे भी क्रिकेट अनिश्चिताओं का खेल हैं तो पहले से ही विजय का अनुमान लगाकर बैठना खुद को दिलाशा देना मात्र भर हैं। खेल कभी भी दो देशों के मध्य नहीं बल्कि प्रतिभागियों के बीच खेला जाता हैं ,जिसका मतलब सौहार्द बढ़ाना होता हैं ,ना की किसी तरह की हानि पहुँचाना। अपनत्व की भावना हर  मानव के मन में होती हैं और हर कोई चाहता हैं की जीत बस हमारी हो। आज के हार से दुखित होकर तोड़ - फोड़ करना और खिलाडियों पर दोषारोपण करना खेल की मौलिकता को छिन्न करना हैं। जिस तरह हम जीत का स्वागत करते हैं ठीक उसी तरह हमे हार को स्वीकारते हुए खिलाड़ियों के मनोबल को उत्साहित करना ही सर्वोत्तम होगा। यह कोई कम गरिमा की बात नहीं की हम विदेशी पिचों पर भी उम्दा प्रदर्शन कर के  सेमीफाइनल तक लड़े और गरिमा तो बस गरिमा ही होती हैं।  विश्वासी खिलाडियों के खरे न उतरने से भले ही हमे हार का सामना करना पड़ा पर इस बात से भी हम कतई नाकारा नहीं कर सकते हैं की अबतक जिस जीत के जश्न  में हम मग्न थे तो वह भी इन्ही खिलाडियों की देंन  थी।  हम समर्थकों को हांरे हुए खिलाडियों के भावनाओं को पढ़कर , उन्हें फिर से उत्साह की नई ऊर्जा देनी चाहिए ताकि कल की जीत सुनिश्चित हो। हर जीत के पीछे हार हैं और जहाँ हार नहीं वहां जीत भी नहीं होती हैं। धोनी के धावकों की लगातार बढाती हुई  गति सेमीफाइनल में थक ही गयी और यही वजह हैं की जीत में डूबे हम भारतियों को जब हार का घूँट मिला तो मन तिलमिला उठा।  समर्थकों के बौखौलाहट को भी हम  नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते क्यूंकि कंगारूओं के समक्ष शेरों का बिल्ली बन जाना बस एक बुरे स्वप्न -सा लगा। इस मैच के दौरान गेंदबाज से लेकर बल्लेबाज़ तक सब के सब दूध काम पानी ज्यादा नज़र आये तो भला आज के दौर में मिलावट कौन बरदाश्त करेगा भला ? ठीक हैं कोई बात नहीं जीत के साथ हार हैं तो प्यार के साथ तकरार तो लाज़मी हैं। परन्तु मैं विराट - अनुष्का की बात नहीं बल्कि भारतीयों का प्यार की बात कर रहा हूँ । 
                                            इस हार में  हड़बड़ाहट साफ़ - साफ़ दिख रही हैं जो की हमारे हार की वजह सदियों से बनी चली आ रही हैं। लक्ष्य चाहे जितना भी बड़ा हो अगर संघर्षमय हौंसला हो तो जीतना आसान हो जाता हैं लेकिन  भारतीय टीम का आल - आउट हो जाना संकेत दे रहा हैं की आत्मविश्वास के पीच से परे हो कर गेंदबाज़ी व बल्लेबाजी की गई हैं।  धोनी एक आत्मविश्वासी कप्तान के नाते उन्हें अपने साथी खिलाडियों को भी विश्वास दिलाने की जरुरत हैं और हांरे के हक़ में हँसी तो नहीं मिलती हैं पर एक नयी जीत हासिल कर के हम अपनी गरिमा को प्यार व सम्मान से बरक़रार रख सकते हैं । आप हारे या जीते हम समर्थकों का स्नेह सदैव समान  ही रहेगा।